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द्वितीय अध्याय जैन देवकुल
जैन देवकुल के स्वरूप को समझने के लिये, जैन साहित्य के आधार पर, जैन देवकुल के क्रमिक विकास एवं जैन देवकुल में समय-समय पर हए परिवर्तनों एवं नवीन देवों के आगमन के कारणों का अध्ययन आवश्यक है। प्रस्तुत अध्याय में विकास को स्पष्टतः समझने के लिये उसे प्रारम्भिक काल ( प्रारम्भ से पाँचवीं शती ई० ) और परवर्ती कॉल ( ६ठीं से १५वीं शती ई० )में बाँटकर अध्ययन किया गया है । (क) प्रारम्भिक काल (प्रारम्भ से पांचवीं शती ई० तक ) :
प्रारम्भिक जैन साहित्य के अन्तर्गत महावीर के समय ( ल० छठी शती ई० पू० ) से पाँचवीं शती ई० के अन्त तक के ग्रन्थ सम्मिलित हैं। ग्रन्थों की यह समय सीमा दो दृष्टियों से रखी गयी है । प्रथम, जैनधर्म के सभी ग्रन्थ ल० पाँचवीं शती ई० के मध्य या छठी शती ई० के प्रारंभ में देवद्धिगणि-क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वलभी (गुजरात) वाचन में लिपिबद्ध किये गये । दूसरे, इन ग्रन्थों में जैन देवकुल की केवल सामान्य अवधारणा ही प्रतिपादित है।'
आगम ग्रन्थ जैनों के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। उपलब्ध आगम ग्रन्थों के प्राचीनतम अंश लगभग चौथी शती ई० पू० के अन्त और तीसरी शती ई० पू० के प्रारम्भ के हैं। काफी समय तक श्रुत परम्परा में सुरक्षित रहने के कारण कालक्रम के साथ इन प्रारम्भिक आगम ग्रन्थों में प्रक्षेपों के रूप में नवीन सामग्री जुड़ती गयी। इसकी पुष्टि भगवतीसूत्र (पाँचवाँ अंक ) में पाँचवीं शती ई०४, रायपसेणिय ( राजप्रश्नीय-दूसरा उपांग ) में कुषाणकालीन और अंगविज्जा में कुषाण-गुप्त सन्धिकालीन सामग्रियों की प्राप्ति से होती है। जहाँ श्वेताम्बरों ने आगमों को संकलित कर यथाशक्ति सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया, वहीं दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद (१५६ ई०) आगमों का मौलिक स्वरूप विलुप्त हो गया। आगम साहित्य के अतिरिक्त कल्पसूत्र ( ल० तीसरी शती ई० ) व पउमचरिय ( ४७३ ई० ) भी प्रारम्भिक ग्रन्थ हैं।
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