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________________ १८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन थे, किसके पुत्र थे और इनकी क्या जाति थी जैसी बातों का उल्लेख न तो इनकी ग्रन्थ प्रशस्तियों में होता है और न ही इनके परवर्ती आचार्यों की ग्रन्थ प्रशस्तियों में। इसका एक संभावित कारण यह रहा होगा कि गृहवास से विरत साधु अपने लौकिक वंश का परिचय देना आवश्यक नहीं समझते थे।४४ केवल उत्तरपुराण के अन्त में दी गयी प्रशस्ति में जिनसेन के जीवन का किंचित् परिचय मिलता है। जयधवला की प्रशस्ति में जिनसेनाचार्य ने अपना परिचय अत्यन्त आलंकारिक रूप में दिया है। इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि ये बाल्यकाल में ही दीक्षित हो गये थे और सरस्वती के आराधक थे। कुशकाय जिनसेन आकृति से भव्य तथा रम्य नहीं थे किन्तु कुशाग्र बुद्धि, ज्ञानराधना एवं तपश्चर्या से इनका व्यक्तित्व महनीय हो गया था। इन्होंने ब्राह्मण स्मृतियों का गहन अध्ययन किया था। स्मृतियों के प्रभाव से इन्होंने जैनाचार को नया आयाम भी दिया ।४५ गुरु परम्परा अबतक के अध्ययन से इनके परमार्थवंश-गुरुवंश की परम्परा आचार्य चन्द्रसेन तक जा सकी है। यह गुरु-शिष्य क्रम इस प्रकार थाचन्द्रसेन के शिष्य आर्यनन्दी थे जो जिनसेन के दादागुरु थे। आर्यनन्दी के शिष्य वीरसेन और वीरसेन के शिष्य जिनसेन हुए जिनके शिष्य गुणभद्र थे ।४६ उत्तरपुराण की प्रशस्ति में गुणभद्र ने स्वयं को वीरसेन के शिष्यों-जिनसेन और दशरथगुरु का शिष्य बतलाया है । __ जिनसेन की गुरु परम्परा को निम्नांकित तालिका से स्पष्टतः समझा जा सकता है४७ आर्यचन्द्रसेन आर्यनन्दी वीरसेन जयसेन दशरथगुरु जिनसेन विनयसेन श्रीपाल पसेन देवसेन गुणभद्र कुमारसेन (काष्ठासंघप्रवर्तक) लोकसेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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