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________________ २६४ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन ऋषभनाथ द्वारा दी गयी विभिन्न शिक्षाओं के सन्दर्भ में शिल्पकला की शिक्षा का उल्लेख जैनधर्म में शिल्प की प्रतिष्ठा का सूचक है । महापुराण में सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों यथा शृंगार, नृत्य, गायन-वादन, वस्त्र एवं दैनिक उपयोग की सामग्रियों का विस्तृत उल्लेख भौतिक जीवन के प्रति सार्थक अनुराग और ज्ञान दोनों को प्रकट करता है । उत्तरपुराण में कुलवती नारियों द्वारा अलंकरण धारण करने का उल्लेख है जबकि विधवा स्त्रियाँ इनका परित्याग कर देती थीं । आभूषणों से सज्जित होने के लिए 'अलंकरणगृह' एवं 'श्रीगृह' का उल्लेख आया है । पूर्ववर्ती ग्रन्थ तिलोयपण्णत्त की भाँति महापुराण में भी भोगभूमि काल में भूषणांग तथा मालांग जाति के ऐसे वृक्षों का उल्लेख हुआ है जो क्रमशः नूपुर, बाजूबन्ध, रुचिक, अंगद मेखला, हार व मुकुट तथा विविध ऋतुओं के पुष्पों से बनी मालाएँ एवं कर्णफूल आदि प्रदान करते थे । १० आदिपुराण की यह अवधारणा स्पष्टतः भारतीय परम्परा की पूर्ववर्ती कल्पवृक्ष की परिकल्पना तथा शुंग - कुषाणकालीन ( साँचो, मथुरा) ऐसे कल्पवृक्षों के शिल्पांकन से प्रभावित है जिनमें विविध प्रकार के आभूषणों और वस्त्रों को कल्पवृक्ष से लटकते हुए दिखाया गया है । महापुराण में शिरोभूषण, कर्णाभूषण, कण्ठाभूषण, हार, कराभूषण, कटिआभूषण, पादाभूषण, प्रसाधन एवं केशसज्जा आदि के विविध प्रकारों का उल्लेख मिलता है जिसमें पूर्ववर्ती परम्परा में वर्णित आभूषणों एवं प्रसाधन सामग्रियों की अनेकशः चर्चा ९वीं १०वीं शती ई० में पूर्ववर्ती आभूषणों एवं प्रसाधन सामग्रियों की लोकप्रियता का संकेत देता है । इस दृष्टि से आदिपुराण में वर्णित हार के ११ भेदों का कौटिल्य के अर्थशास्त्र में पूर्व उल्लेख विशेष महत्त्पूर्ण है । आदिपुराण में विशेष अवसरों पर विशेष प्रकार की वेशभूषा का सन्दर्भ न केवल वस्त्र के महत्त्व वरन् इस सम्बन्ध में उनके सुरुचिपूर्ण समझ का भी सूचक है । दिगम्बर परम्परा में तीर्थंकर यद्यपि निर्वस्त्र होते हैं किन्तु विभिन्न देव मानव आकृतियों को वस्त्रों से सज्जित बताया गया हैं । एलोरा की पार्श्वनाथ बाहुबली मूर्तियों में क्रमशः पद्मावती एवं विद्याधरियों के निरूपण में वस्त्राभूषणों एवं केशसज्जा का वैविध्य ध्यातव्य है । साथ ही का यक्षी, आलिंगनबद्ध स्त्री-पुरुष युगलों एवं चामरधारी सेवकों के अंकन में भी वस्त्राभूषण विविधतापूर्ण और चित्ताकर्षक हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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