SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसंहार : २६३ सातवें अध्याय में महापुराण में वर्णित स्थापत्यगत सामग्री का संक्षेप में उल्लेख किया गया है जिसके अन्तर्गत जिन मंदिरों, समवसरण, राजप्रासाद एवं सामान्य भवनों की चर्चा की गयी है। आदिपुराण में जैन मंदिर के लिए सिद्धायतन या चैत्यालय शब्द प्रयुक्त हुआ है और एक स्थल पर चैत्यवृक्ष के समीप जैन मंदिर के स्थित होने का भी सन्दर्भ आया है। ऊँचे मणिमय शिखरों से युक्त जिनेन्द्रदेव ( आदिनाथ ) के चैत्यालय में अनेक स्तम्भों एवं शिखरों तथा समीपवर्ती सरोवरों का सन्दर्भ नवीं-१०वीं शती ई० के जैन मंदिरों की अवधारणा के अनुरूप है। अनेक शिखरों का संकेत संभवतः अंगशिखरों से संबंधित है। आदिपुराण में जैन मंदिरों को नृत्य व संगीत की प्रस्तुति का स्थल भी बताया गया है जो तत्कालीन मंदिरों में रंगमण्डप या सभामण्डप की अवधारणा को व्यक्त करता है। ___ महापुराण में जिन समवसरण का भी विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है। समवसरण वह देवनिर्मित सभा है जहाँ केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् प्रत्येक जिन अपना प्रथम धर्मोपदेश देते हैं और समस्त देव, मानव एवं पशु यानी चराचर जगत आपसी कटुता भूलकर जिनोपदेश का श्रवण करते हैं। तीन प्राचीरों तथा प्रत्येक प्राचीर में चार प्रवेशद्वारों वाले भव्य समवसरण में सबमें ऊपर जिन ( पूर्वाभिमुख ) विराज मन होते हैं । अनेक गोपुर द्वारों, तोरणों तथा उनपर १०८ मंगलद्रव्यों ( कलश, दर्पण आदि) एवं नवनिधियों से युक्त समवसरण अत्यन्त अलंकृत भवन होते थे। वीथिका, महावीथिका, कोट, धूलिशाल, नाट्यशाला, ध्वजभूमि, चैत्यवृक्ष, स्तूप, श्रीमण्डप, गन्धकूटी, अलंकृत गोपर द्वारों एवं तोरणों से युक्त समवसरण सभा न केवल धार्मिक महत्त्व का वरन जैन स्थापत्य का भी एक उत्कृष्ट एवं अभिनव उदाहरण है जिसमें बौद्ध स्थापत्य से सम्बन्धित शब्दों की प्रधानता ज्ञातव्य है । समवसरणों के मूर्त उदाहरण मुख्यतः श्वेताम्बर स्थलों से ही मिले हैं। ११वीं से १३वीं शती ई० के मध्य के ये उदाहरण कुंभारिया ( महावीर एवं शांतिनाथ मंदिर ), विमलवसही, लूणवसही एवं कैम्बे से मिले हैं। राजप्रासाद एवं सामान्य भवनों के सन्दर्भ में उनके विभिन्न प्रचलित स्वरूपों एवं विभाजन, विशेषतः भवनों के प्रमुख अंगों के रूप में द्वार, स्तम्भ, गवाक्ष, मण्डप, स्नानागार, नृत्यशाला, भण्डारगृह ( आदिपुराण ३७.१४९-१५२) के उल्लेख महत्त्वपूर्ण और उनके उपयोगितावादी दृष्टि को उजागर करते हैं। आदिपुराण तथा अन्य प्रमुख श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy