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सांस्कृतिक जीवन : २३३ के शृंगार का एक अनिवार्य अंग है। जैन पुराणों तथा जैनेतर ग्रन्थों में पुष्पों एवं पल्लवों की माला तथा आभूषणों के अनेक उदाहरण मिलते हैं । स्त्रियाँ पुष्प व पत्तों से माला तथा कर्णफूल आदि विभिन्न प्रकार के आभूषण बनाकर अपना श्रृंगार करती थीं।२३२ पुष्पमालाओं को केशों तथा हाथों के आभूषण रूप में धारण किया जाता था। सभी वर्ग के स्त्री-पुरुष विभिन्न उत्सव आदि के अवसर पर गले में पुष्पमाला धारण करते थे । पुष्पों की कलंगी या मुकुट का भी प्रचलन था। पुष्पों के अतिरिक्त सज्जा के लिये आम्रमंजरी तया पुष्पमंजरी का भी प्रयोग किया जाता था ।२33 विभिन्न प्रकार के पुष्पों व पत्तों से निर्मित कर्णाभूषण भी स्त्रियाँ पहनती थीं। इसके लिये वनलताओं के पुष्प, पत्ते तथा नीलोत्पल ( कमल ) का प्रयोग किया जाता था।२३४ । संगीत :
प्राचीनकाल से ही मानव जीवन में संगीत का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। मानव मन की प्रसन्नता तथा दुःख जैसे आन्तरिक भावों की अभिव्यक्ति का संगीत सबसे सशक्त माध्यम रहा है। मनोरंजन का भी यह महत्त्वपूर्ण स्रोत रहा है । जैन पुराणों में जहाँ एक ओर सांस्कृतिक जीवन के महत्त्वपूर्ण पक्ष वस्त्र, आभूषण, प्रसाधन तथा केशसज्जा का विस्तृत उल्लेख मिलता है, वहीं संगीत एवं नृत्य जैसे ललित कलाओं के भी प्रचुर उल्लेख उपलब्ध हैं । जैनसूत्रों में संगीत को ७२ कलाओं में स्थान प्राप्त है ।२३५ समाज में जनता के मनोरंजन के अन्य साधनों के साथ ही गायन, वादन एवं नृत्य का भी आयोजन होता था ।२३६ जैन आगमों में तीर्थंकर के जन्मदिन, जिनत्व की प्राप्ति, पुत्र जन्मोत्सव आदि पर संगीत के आयोजन का उल्लेख मिलता है ।२३° ज्ञातव्य है कि नीलांजना के नृत्य के कारण ही ऋषभनाथ को वैराग्य हुआ था। हरिवंशपुराण में किन्नर, गन्धर्व, तुम्बरु, नारद तथा विश्वावसु को संगीत के देवता के रूप में स्वीकार किया गया है ।२३८ जैनपुराणों में संगीत के तीन प्रमुख पक्ष गायन, वादन तथा नृत्य के अनेक उल्लेख हैं। गायन:
संगीत के प्रमुख तीन पक्षों में गायन का प्रथम स्थान है । जैन सूत्रों में गायन के चार तत्त्व-उत्क्षिप्त, पादात्त, मंदक तथा रोचितावसान वणित हैं । २३९ गीत में इन तत्त्वों का होना अनिवार्य है । हरिवंशपुराण में षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद इन सात
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