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पूर्वपीठिका: ९
वाराणसी के पार्श्वनाथ जैन शोध संस्थान ने कई खण्डों में जैन साहित्य का इतिहास प्रकाशित कर जैन अध्ययन को आगे बढ़ाने का आधार दिया है। साथ ही हरिवंशपुराण, यशस्तिलक, समराइच्चकहा, भगवतीसूत्र, आदिपुराण, उत्तरपुराण, रायपसेणिय, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र जैसे जैन ग्रन्थों के आधार पर सांस्कृतिक इतिहास लेखन के कई महनीय प्रयास जे० सी० सिक्दर ( भगवतीसूत्र ), गोकुलचन्द्र जैन ( यशस्तिलक - १९६७), मंजु शर्मा (त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र- अप्रकाशित), प्रेमचन्द जैन (हरिवंशपुराण ), नेमिचन्द्र शास्त्री ( आदिपुराण ), रमेशचन्द्र शर्मा (रायपसेणिय ), झिनकू यादव ( समराइच्चकहा ), सिद्धनाथ झा ( आदिपुराण) एवं देवी प्रसाद मिश्र ( जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन - १९८८ ) द्वारा किये गये हैं, किन्तु जैन महापुराण या श्वेताम्बर परम्परा के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र जैसे ग्रन्थों की कलापरक सामग्री पर अद्यतन कोई कार्य नहीं हुआ है जबकि प्रारम्भिक पृष्ठों के उल्लेखों से यह सर्वदा स्पष्ट है कि एलोरा एवं अन्य दिगम्बर स्थलों पर होने वाले शिल्पांकन में विषयवस्तु एवं लक्षण दोनों ही दृष्टियों से जिनसेन के आदिपुराण एवं गुणभद्र के उत्तरपुराण की आधारभूत भूमिका रही है । इसी प्रकार हेमचन्द्र कृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र का पश्चिम भारत के श्वेताम्बर स्थलों - देलवाड़ा, (विमलवसही लूणवसही ), कुम्भारिया, तारंगा, सादड़ी, घणेराव की मूर्तियों के उकेरन में अहम् भूमिका रही है ।
महापुराण की विषय वस्तु :
पुरातनं पुराणं स्यात् तन्महन्महदाश्रयात् 1 महभ्दिरुपदिष्टवात्महायोऽनुशासनात् ॥
महापुरुषसम्बन्धि महाभ्युदयशासनम् । महापुराणमान्नातमत एतन्महर्षिभिः ||
महापुराण में महापुरुषों का वर्णन किया गया है । इसका अध्ययन महान् अभ्युदय स्वर्ग - मोक्षादि कल्याणों का कारण है इसी कारण महर्षि लोग इसे महापुराण मानते हैं ।
महापुराण की उपर्युक्त परिभाषा स्वयं इसके कर्त्ता जिनसेन ने आदिपुराण के प्रथम पर्व में दी है । जिनसेन ने आगे यह भी लिखा हैकि ऋषि-प्रणीत होने के कारण महापुराण 'आर्ष', सुन्दर भाषा में वर्णित होने के कारण 'सूक्त' तथा धर्मोपदेश से संबंधित होने के कारण 'धर्म
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