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________________ १० : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन शास्त्र भी माना गया है । ' ' इति इह आसीत' यहाँ ऐसा हुआ ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने के कारण ऋषिगण ने इसे 'इतिहास', 'इतिवृत्त', और 'ऐतिह्य' भी कहा है ।" जिनसेन ने आदिपुराण के विषयवस्तु के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि देवगुरु शास्त्र के स्तवनों द्वारा मंगलरूप सत्क्रिया को करके मैं तिरसठ शलाका पुरुषों से संबंधित पुराण का संग्रह करूँगा तथा तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलभद्रों, नारायणों और उनके शत्रुओं - प्रतिनारायणों का भी पुराण कहूँगा । " जिनमेन द्वारा दी गयी महापुराण की परिभाषा और उसकी विषय-वस्तु से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुराण के नायक वे ही महापुरुष हो सकते हैं जिनके चरित्र पूर्वं परम्परानुसार लोकप्रसिद्ध हैं तथा जिनके द्वारा लोकजीवन का उत्कर्षं तथा अभ्युदय सम्भव है । १२ इस प्रकार 'त्रिषष्टिलक्षण - महापुराण संग्रह' अपरनाम महापुराण प्राचीन काल का एक महान आख्यान है । महापुराण जैन पुराणशास्त्रों में मुकुट-मणि रूप तथा आगे के जैन साहित्य के लिये आधार स्वरूप है । यह एक पौराणिक महाकाव्य है और इसके अनेक खण्ड संस्कृत काव्य के सुन्दर उदाहरण हैं । इस पुराण में कवि ने ६७ विभिन्न छन्दों का प्रयोग किया है किन्तु आदिपुराण में अधिकांशत: अनुष्टुप छन्द ही प्रयुक्त हैं । ३ दिगम्बर जैनों के लिये यह एक ऐसा विश्वकोश है जिससे तत्कालीन भौगोलिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक एवं जैन कला के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त होती हैं । आदिपुराण के सम्पादक पन्नालाल जैन के अनुसार संस्कृत साहित्य के अनुपम रत्नस्वरूप आदिपुराण एक महाकाव्य, धर्मकथा, धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, आचारशास्त्र और युग की आद्यव्यवस्था को बतलाने वाला महान इतिहास है ।१४ जिस प्रकार बहुमूल्य रत्नों का उत्पत्ति स्थान समुद्र है, उसी प्रकार सूक्त रत्नों के भण्डार स्वरूप यह महापुराण श्रव्य है, व्युत्पन्नबुद्धि वालों के लिये ग्रहण करने योग्य है तथा अतिशय ललित है ।" इस महापुराण में काव्यात्मक वर्णनों, धार्मिक प्रवचनों, नैतिक उपदेशों, रूढ़िगत स्वप्नों, नगर योजनाओं एवं कलात्मक पक्षों के वर्णन का कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा है । महापुराण की रचना में जिनसेन व गुणभद्र ने आगमिक परम्परा तथा यतिवृषभकृत तिलोय पणति एवं कविपरमेष्ठीकृत वागर्थसंग्रह जैसी आगमोत्तर रचनाओं का भी उपयोग किया है । १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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