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________________ १९६ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन है जिसकी दीवारों पर काले, पीले, नीले, लाल आदि रंगों से अनेक चित्र बने हुए थे। मंदिर में झरोखों, भीतर लटकते हुए घण्टों तथा मजबूत स्तम्भों का भी उल्लेख है।४१ आदिपुराण में एक अन्य स्थल पर ऊँचे शिखरों व रत्नों की कांति से शोभायमान जिनेन्द्र देव के चैत्यालय का उल्लेख है जिसमें जिनेन्द्रदेव की सुवर्णमयी प्रतिमा थी।४२ उत्तरपुराण में नगर के बाहर मनोहर नामक उद्यान में हजार शिखरों से युक्त जिन मंदिर का उल्लेख है जिसके समीप ही स्वच्छ जल एवं खिले हुए कमलों से शोभायमान सरोवर थे।४3 इससे स्पष्ट होता है कि जैन मंदिर ऊँचे व अनेक शिखरों से युक्त होते थे तथा उनके समीप ही स्वच्छ जल के सरोवर भी होते थे। जैन पुराणों में पर्वत पर भी जैन मंदिरों के निर्माण का उल्लेख हुआ है ।४४ हरिवंशपुराण में विजयार्धपर्वत के सिद्धायतन नामक कूट पर सिद्धकूट नामक एक विशाल जिन मंदिर का उल्लेख है जो पौन कोश ऊँचा, आधा कोश चौड़ा तथा एक कोश लम्बा था।४५ हरिवंशपुराण में ही एक अन्य स्थल पर चार दिशाओं में निर्मित पच्चीस योजन लम्बी, साढ़े बारह योजन चौड़ी, आधा कोश गहरी तथा पौने उन्नीस योजन ऊँचे जिनालयों का उल्लेख हआ है। इन जिनालयों में देवछन्द नामक एक गर्भगृह का उल्लेख है जो देदीप्यमान रत्नों से निर्मित विशाल स्तम्भों, सूवर्णमयी दीवारों तथा उन पर बने चन्द्र, सूर्य, उड़ते हुए पक्षी एवं हरिण-हरिणियों के युग्म से अलंकृत था। गर्भगृह में सुवर्ण व रत्नों से निर्मित पाँच सौ धनुष ऊँची, एक सौ आठ जिन प्रतिमाएँ थीं जिनके पास चामरधारी नागकुमार एवं यक्षों के युगल खड़े थे। समस्त प्रतिमाएँ सनत्कुमार, यक्ष तथा निवृत्ति एवं श्रुत देवी की मूर्तियों से युक्त थीं। जिनालयों में झरोखे, गह जालियाँ, मोतियों की झालर तथा घंटियों का उल्लेख है। प्रत्येक जिन मंदिर में सुवर्णमय एकएक कोट एवं चारों दिशाओं में पचास योजन ऊँचे गोपुर से युक्त चार तोरणद्वार होते थे जिनपर सिंह, हंस, गज, पद्म, वृषभ, मयूर, गरुड, चक्र और माला के चिह्नों से चिह्नित ध्वजाओं के फहराने का उल्लेख है। चैत्यालयों के आगे विशाल सभामण्डप, उसके आगे लम्बा चौड़ा प्रक्षागृह, स्तूप और स्तूप के आगे पद्मासन में विराजमान प्रतिमाओं से सुशोभित चैत्यवृक्ष व जिनालय के पूर्व दिशा में शुद्ध जल से पूर्ण सरोवर का भी वर्णन मिलता है।४६ पद्मपुराण के अनुसार जिन मंदिरों में जिनेन्द्रदेव आदि के चित्र भित्तियों पर निर्मित होते थे। अलंकृत द्वार के दोनों किनारों पर कलश रहते थे। मंदिर को सुन्दर ढंग से सुसज्जित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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