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अन्य देवी-देवता ; १९३
गुड्ड नामक पहाड़ी पर स्थित पार्श्वनाथ मन्दिर एवं धारवाड़ जिले में लक्कुण्डी नामक ग्राम में स्थित दो जैन मन्दिर हैं । द्राविड़ वास्तुकला का अधिक विकास होयसलकालीन मन्दिरों में देखने को मिलता है । इसके उदाहरण श्रवणबेलगोल से एक मील उत्तर की ओर स्थित जिननाथपुर और असिकेरी के जैन मन्दिरों और हलेबिड में होयसलेश्वर मन्दिर के समीप हल्लि नामक ग्राम में एक ही घेरे में बने तीन जैन मन्दिरों में देखे जा सकते हैं। ये सभी मन्दिर ११वीं-१२वीं शती ई० के हैं ।२६
गुजरात व राजस्थान में चौलुक्य (या सोलंकी) राजवंश ( ९६११३०४ ई० ) का जैन कला के विकास में सर्वाधिक योगदान रहा है। इस राजवंश के शासकों के संरक्षण में कुंभारिया (११वीं-१३वीं शती ई०), तारंगा एवं जालौर में कई जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ। कुमारपाल ( ११४४-७४ ई० ) ने तारंगा ( महेसाणा ) में अजितनाथ और जालौर के कांचनगिरि ( सुवर्णगिरि) पर पार्श्वनाथ मंदिरों का निर्माण कराया।२७ चौलुक्य शासकों के अतिरिक्त मंत्रियों, सेनापतियों एवं अन्य विशिष्ट जनों और व्यापारियों ने भी अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराकर जैन कला को अपना समर्थन प्रदान किया। ऐसे मन्दिरों में देलवाड़ा स्थित विमलवसही व लूणवसही मुख्य हैं। राजस्थान के अनेक जैन मन्दिरों में ८वीं शती ई० का जोधपुर स्थित ओसियां का प्रतिहारकालीन महावीर मंदिर प्रारम्भिकतम है। चाहमान शासकों के समय में नाडोल में नेमिनाथ, शान्तिनाथ एवं पद्मप्रभ मन्दिरों का निर्माण हुआ। इसके अतिरिक्त अन्य शासकों द्वारा जैन मन्दिरों के लिये दान देने का उल्लेख भी मिलता है ।२८ राजस्थान के वैश्यों ने भी अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। उत्तर प्रदेश में देवगढ़ का मन्दिर-१२ ( शान्तिनाथ मन्दिर-८६२ ई० ) जैन स्थापत्य का एक सुन्दर उदाहरण है।
मध्यप्रदेश में व्यापारिक समृद्धि तथा विभिन्न राजवंशों के धर्मसहिष्णु शासकों के प्रश्रय के फलस्वरूप अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ। प्रतिहार शासकों के काल में ही १०वीं शतो ई० के प्रारम्भ में ग्यारसपुर में मालादेवी जैन मन्दिर का निर्माण हुआ । खजुराहो के जैन मन्दिरों के अतिरिक्त चन्देल राज्य में सर्वत्र प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियाँ एवं मन्दिर जैन धर्म के प्रति उनके उदार दृष्टिकोण की पुष्टि करते हैं २९ खजुराहो के पार्श्वनाथ, आदिनाथ, घण्टई व शान्तिनाथ मन्दिरों में
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