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________________ अन्य देवी-देवता : १८३ खजुराहो एवं देवगढ़ की १०वीं से १२वीं शती ई० के मध्य की मूर्तियों में बाहुबली के साथ कई नवीन और परम्परा में सर्वथा अवर्णित विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। इनमें बाहबली को तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठा प्रदान करने का भाव देखा जा सकता है। जब भी जैन देव परिवार के किसी देवता की प्रतिष्ठा में वृद्धि की गयी तो उसे तीर्थंकरों के निकट लाने का प्रयास किया गया है । खजुराहो की मूर्ति पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह की भित्ति पर है। इसमें वक्षःस्थल और उदरभाग पर वृश्चिक और छिपकली की आकृतियाँ बनी हैं। शरीर पर पूर्ववत् माधवी की लताएँ लिपटी हैं। इस मूर्ति में तीर्थंकर मतियों में प्रदर्शित होनेवाले अष्टप्रातिहार्यों में से अधिकांश को उत्कीर्ण किया गया है। यहाँ बाहुबली के साथ सिंहासन, दो चामरधर सेवक, धर्मचक्र, छत्र, उड्डीयमान मालाधर एवं वक्षःस्थल पर श्रीवत्स चिह्न प्रदर्शित हैं। तीर्थंकर मूर्तियों के ये अभिन्न लक्षण देवगढ़ की मूर्तियों में भी देखे जा सकते हैं। देवगढ़ में बाहबली की कूल ६ मतियाँ हैं । एक उदाहरण (मन्दिर ११-१२वीं शती ई०) में तो तीर्थंकर मूर्तियों के समान ही बाहुबली के सिंहासन के दोनों छोरों पर द्विभुज यक्ष और यक्षी की भी आकृतियाँ उकेरी हैं। यहाँ यक्ष गोमुख है जो पारम्परिक दृष्टि से तीर्थंकर ऋषभनाथ का यक्ष है। ज्ञातव्य है कि अष्टप्रातिहार्य, धर्मचक्र एवं यक्ष-यक्षी तीर्थंकर मूर्तियों के अभिन्न और पारम्परिक लक्षण हैं। इन्हीं तत्त्वों को उपर्युक्त बाहुबली मूर्तियों में भी प्रदर्शित किया गया है । संख्या की दृष्टि से दक्षिण भारत की तुलना में कम होते हुए भी उत्तर भारत की मूर्तियों का बाहुबली की मूर्तियों के विकास की दृष्टि से अग्रगामी योगदान रहा है। उत्तर भारत की कुछ अन्य मूर्तियाँ प्रभास पाटण (गुजरात) एवं बिल्हरी (मध्य प्रदेश) से मिली हैं। एक मूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ (क्रमांक ९४०) में है। __ एलोरा में पार्श्वनाथ तीर्थंकर के बाद बाहुबली की ही सर्वाधिक मूर्तियाँ बनीं जिनके लगभग २० उदाहरण जैन गुफाओं में देखे जा सकते हैं (चित्र ४५, ४६, ४७, ४८)।१२५ एलोरा की बाहुबली मूर्तियाँ भारत के अन्य किसी भी क्षेत्र की अपेक्षा लक्षणों की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। आदिपुराण के बाहुबली चरित् की पृष्ठभूमि में एलोरा की बाहुबली मूर्तियों का मूल्यांकन महत्वपूर्ण है जिन्हें तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठापरक स्थिति प्रदान की गयी। ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रकूटों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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