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________________ १८२ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन पैरों में माधवी की लताएँ लिपटी हैं । श्वेताम्बर स्थलों पर बाहुबली की स्वतंत्र मूर्तियाँ नगण्य हैं। १४वीं शती ई० की एक श्वेताम्बर मूर्ति गुजरात के शत्रुजय पहाड़ी पर है। १५वीं शती ई० की एक मूर्ति जैसलमेर से मिली हैं। ऋषभनाथ के जीवन दृश्यों के अंकन के प्रसंग में भी कुछ श्वेताम्बर स्थलों पर भरत-बाहुबली युद्ध और बाहुबली की कायोत्सर्गमुद्रा में खड़ी मूर्तियाँ बनीं। इनमें गुजरात में कुम्भारिया स्थित शान्तिनाथ एवं महावीर मन्दिरों (११वीं शती ई०) तथा राजस्थान स्थित विमलवसही के उदाहरण मुख्य हैं। इन उदाहरणों में श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही बाहुबली के दोनों पार्यों में नमस्कारमुद्रा में ब्राह्मी और सुन्दरी की मूर्तियाँ बनी हैं। दिगम्बर स्थलों पर छठी-सातवीं शती ई० में ही बाहुबली का निरूपण प्रारम्भ हो गया। इसके उदाहरण बादामी और अयहोल में हैं। बादामी की मूर्ति में बाहुबली निर्वस्त्र और कायोत्सर्गमुद्रा में पद्म पर खड़े हैं। केश पीछे की ओर संवारे गये हैं। हाथों और पैरों में माधवी लिपटी है। तपस्यारत बाहुबली के समीप ही बाल्मीक से निकलते दो सर्यों को दिखलाया गया है। समीप ही दो पुरुषों और दो उपासकों की भी आकृतियाँ बनी हैं। अयहोल की बाहबली मति में भी यही लक्षण हैं। इसमें बाहुबली के दोनों पाश्वों में दो स्त्री आकृतियाँ बनी हैं जो विद्याधरियों की मूर्तियाँ हैं। ध्यातव्य है कि दिगम्बर ग्रन्थों में उल्लेख है कि ध्यानस्थ बाहुबली के शरीर पर लिपटी माधवी की लताओं को विद्याधरियों ने हटाया था।१२४ अतः दिगम्बर स्थलों की मूर्तियों में बाहुबली के दोनों पार्यों की स्त्री आकृतियों की पहचान ब्राह्मी और सुन्दरी के स्थान पर विद्याधरियों से की जानी चाहिये। दिगम्बर स्थलों पर इनका नियमित अंकन हुआ है। अयहोल की मूर्ति में ऊपर की ओर वृक्ष और उड्डीयमान गन्धर्वो आदि की भी मूर्तियाँ बनी हैं । बाहुबली की केश-रचना जटा के रूप में प्रदर्शित है और कुछ लटें कन्धों पर भी फैली हैं। बाहबली की मुखाकृति और उनके अर्घ निमिलित नेत्र उनकी चिन्तनशीलमुद्रा को अभिव्यक्त करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिल्प में सातवीं शती ई० तक बाहुबली की लाक्षणिक विशेषताएँ नियत हो गयी थीं। परवर्ती काल की मूर्तियों में इन्हीं में कुछ विकास दृष्टिगत होता है। इनमें लता वल्लरियों के साथ ही बाहुबली के शरीर पर सर्प, वृश्चिक और छिपकली आदि का भी अंकन हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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