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________________ अन्य देवी-देवता : १८१ बाहुबली के मध्य सेनाओं के परस्पर युद्ध का उल्लेख किया है ।११९ इस अहिंसक द्वन्द्व-युद्ध में बाहुबली द्वारा विजयी होने पर भरत ने निर्णय के प्रतिकूल बाहुबली पर चक्र चला दिया जिससे राज्य लिप्सा की परिणति का बाहुबली को भास हुआ और तत्क्षण बाहुबली के मन में वैराग्य का भाव उत्पन्न हुआ और उन्होंने राज्य त्याग कर दीक्षा ग्रहण की । १२० आदिपुराण में एक वर्ष तक प्रतिमा योग में स्थित बाहुबली की कठिन तपस्या का विस्तार के साथ उल्लेख हुआ है। अपने गुणों से पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि तथा कामदेव को जीतने वाले मुनिराज बाहुबली ने पाँच इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया था। उनके तप के प्रभाव से वन के परस्पर शत्रुभाव वाले जीव-जन्तु, जैसे-गज, मयूर-सर्प आदि, अहिंसक और शान्त होकर इनके समीप ही विचरण कर रहे थे । उनके शरीर पर लिपटी लता-वल्लरियों को कभी-कभी क्रीड़ा हेतु आयी विद्याधरियाँ हटा जाती थीं। इस प्रकार की कठिन साधना का एक वर्ष व्यतीत होने तथा भरत द्वारा उनकी पूजा किये जाने पर बाहुबली को केवलज्ञान प्राप्त हुआ।१२१ बाहुबली-भरत के युद्ध, बाहुबली की विरक्ति, दीक्षा एवं तपश्चर्या से सम्बन्धित विवरण श्वेताम्बर व दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से वर्णित हैं किन्तु इनके केवलज्ञान प्राप्ति के सम्बन्ध में कुछ भिन्नता मिलती है। श्वेताम्बर परम्परा में साधना के मध्य बाहबली में दर्प की उपस्थिति तथा उनकी बहनों-ब्राह्मी एवं सुन्दरी के उद्बोधन से उसकी निवृत्ति और कैवल्य प्राप्ति का उल्लेख हुआ है । १२२ जबकि दिगम्बर परम्परा में साधक के मध्य बाहुबली में दर्प की विद्यमानता का अनुल्लेख है किन्तु अग्रज भरत की पूजा के बाद ही बाहुबली के कैवल्य प्राप्ति का उल्लेख हुआ है। कैवल्य प्राप्ति के बाद अपते वचनरूपी अमृत से समस्त संसार को सन्तुष्ट करते हुए बाहुबली अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुए। उपर्युक्त पारम्परिक पृष्ठभूमि के आधार पर ही विभिन्न क्षेत्रों में छठी-सातवीं शती से १७वीं शती ई० के मध्य वाहुबली की अनेक मूर्तियाँ बनीं । १२3 श्वेताम्बर स्थलों पर बाहुबली अधोवस्त्र पहने हुए दिखाये गये हैं जबकि दिगम्बर स्थलों पर उन्हें निर्वस्त्र दिखलाया गया है। दोनों परम्परा की मूर्तियों में कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े बाहुबली के हाथों और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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