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________________ १८४ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन के समय बाहुबली के उपासकों का कोई स्वतन्त्र सम्प्रदाय भी रहा होगा । ये बाहुबली मूर्तियाँ एक ओर बादामी (चित्र ४४) और अयहोल को पूर्ववर्ती चालुक्यकालीन बाहुबली मूर्तियों से पूरी तरह प्रभावित और उनमें लाक्षणिक विकास दर्शाती हैं तथा दूसरी ओर कई दृष्टियों से देवगढ़ और खजुराहो की दिगम्बर परम्पराओं की उत्तर भारतीय शैली से भी प्रभावित हैं । एलोरा के अतिरिक्त दक्षिण भारत के अन्य किसी भी स्थल की बाहुबली मूर्तियों में प्रातिहार्यो, पार्श्ववर्ती विद्याधरियों एवं चरणों के समीप नमस्कारमुद्रा में भरत चक्रवर्ती की आकृतियों का अंकन नहीं हुआ है । बाहुबली के समीप मृग, उष्ट्र, मूषक आदि का अंकन एलोरा की बाहुबली सूर्तियों की अपनी विशेषता है जो आदिपुराण के वर्णन के अनुरूप है। बाहुबली की मूर्तियाँ एलोरा की सभी जैन गुफाओं में उत्कीर्ण हैं । सर्वाधिक मूर्तियाँ गुफा सं० ३२ में देखी जा सकती हैं (चित्र ४५, ४६, ४७) । एलोरा की बाहुबली मूर्तियों में अप्रातिहार्यों में से केवल प्रभामण्डल, दुन्दुभिवादक, दिव्यध्वनि, मालाधारी गन्धर्व एवं त्रिछत्र के स्थान पर एक छत्र दिखाया गया है । त्रिछत्र के स्थान पर एक छत्र दिखाकर सम्भवतः बाहुबली के केवल केवली होने का संकेत दिया गया है । १२६ इस प्रकार देवगढ़ और खजुराहो की दिगम्बर परम्परा की मूर्तियों के समान ही एलोरा में भी बाहुबली को तीर्थंकरों के समान प्रतिष्ठा प्रदान करने का प्रयास किया गया । बाहुबली की १३ मूर्तियाँ केवल गुफा सं० ३२ ( ९वीं शती ई०) में उत्कीर्ण हैं। सभी उदाहरणों में निर्वस्त्र बाहुबली कायोत्सर्गमुद्रा में तपस्यारत निरूपित हैं । आदिपुराण के विवरण के अनुरूप बाहुबली के दोनों पाव में दो मनोहारी विद्याधरियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं जो बाहुबली के शरीर से लिपटी लता- वल्लरियों को हटा रही हैं। परम्परानुरूप समीप हो मुकुट आदि से सज्जित भरत चक्रवर्ती की आकृति भी उकेरी है जो स्तवन की मुद्रा में हाथ जोड़े हुए हैं । इन मूर्तियों में बांबी से निकलते सर्प एवं निश्चिन्त भाव से विचरण करते हुए मृग, वृश्चिक्, उष्ट्र आदि जीवों का अंकन भी ध्यातव्य है । शरीर पर लिपटी लतावल्लरियों एवं विभिन्न जीव-जन्तु के माध्यम से एक ओर बाहुबली की कठिन साधना और दूसरी ओर वन को पृष्ठभूमि को सफलतापूर्वक दर्शाया गया है । उत्तर भारतीय मूर्तियों के समान ही कई उदाहरणों बाहुबली के समीप तीर्थंकरों की कायोत्सर्गं आकृतियाँ भी उकेरो है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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