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१६८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि तथा लक्ष्मी को प्रमुख व्यन्तर देवियों के अन्तर्गत रखा गया है और इनका निवास पद्म, महापद्म, तिंगछ, केसरी, महापुण्डरीक तथा पुण्डरीक नामक हृदों में माना गया है। इन सभी व्यन्तर देवियों का उल्लेख जिनमाता की विभिन्न प्रकार से सेवा करने के संदर्भ में आता है । २१ पुष्पदंत के महापुराण में यक्षेश्वरी, चित्रवेगा, धनवती तथा धनश्री नामक व्यन्तर देवियों का उल्लेख आया है । २२ ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर स्थलों पर तीर्थंकरों के जन्मकल्याणक के प्रसंग में कलश एवं चामरधारी व्यन्तर देवियों का अंकन हुआ है ।
ज्योतिष्क देव :
दोनों ही परम्पराओं के अनुसार ज्योतिष्क देव को क्रमशः सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र तथा तारा इन प्रमुख पाँच वर्गों में विभक्त किया गया है । २3 इनका वास आकाश में ७९० योजन की ऊँचाई पर माना गया है। तथा ये मनुष्य लोक के ऊपर विचरण करते हैं । २४ हेमचन्द्र के अनुसार ज्योतिष्क वर्ग के सभी देव रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर निवास करते हैं । २५ प्रत्येक चन्द्रमा के ८८ ग्रह होते हैं तथा नक्षत्रों की संख्या २८ है | नवग्रहों को जैन शिल्प में जिन - प्रतिमाओं की पीठिकाओं पर लगभग सभी स्थलों पर उत्कीर्ण किया गया | २६
वैमानिक देव :
ऊर्ध्वलोक में स्थित विभिन्न कल्पों में निवास करने वाले वैमानिक देवों को कल्पदेव भी कहा गया है। श्वेताम्बर परम्परा में इन देवों की संख्या १२ है जो क्रमशः सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्त्रार, आनत्, प्राणत्, आरण और अच्युत हैं । २७ लोक एवं ब्राह्मण परम्परा के देवी-देवता :
जैन ग्रन्थों में ऐसे अनेक देवों के भी उल्लेख मिलते हैं जिनकी पूजा लोक परम्परा में प्रचलित थी और जो ब्राह्मण एवं बौद्ध धर्मों में भी सामान्यरूप से लोकप्रिय थे । २ इनमें इन्द्र, रुद्र, शिव, स्कन्द, मुकुन्द, वासुदेव, नारद, वैश्रमण (या कुबेर), गन्धर्व, पितर, नाग, भूत, पिशाच, लोकपाल (सोम, यम, वरुण, कुबेर), अग्निदेव, ब्रह्मा, विष्णु, वामनदेव, नरसिंह, कामदेव, नक्षत्र, सूर्य एवं तिथि देवों तथा श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, अज्जा (पार्वती या आर्या या चण्डिका), कोट्टकिरिया (महिषा
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