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________________ १२२ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार किसी दिन दर्पण में अपने को आभषण रहित देखकर व सुन्दरता को क्षणिक जानकर भरत को इस नश्वर संसार से विरक्ति हुई । १८ उसी समय भरत को आत्मज्ञान व केवलज्ञान प्राप्त हुआ । तदुपरान्त अनेक देशों में धर्म का उपदेश देते हुए विहार करने के बाद उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ। जैन परम्परा में त्याग और साधना को ही अधिक महत्त्व दिया गया है। इसी कारण भरत की चक्रवर्ती रूप में पूजा नहीं की गयी किन्तु जब उन्होंने संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण की और कठिन साधना द्वारा कैवल्य और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त किया, उस अवस्था में भरत पूज्य या उपास्य हो गये। भरत के अनुज बाहुबली की विभिन्न दिगम्बर स्थलों पर पर्याप्त संख्या में स्वतंत्र मूर्तियाँ बनीं किन्तु भरत की देवगढ़ के अतिरिक्त अन्य किसी स्थल पर कोई मति नहीं उकेरी गयी। एलोरा में भी जहाँ बाहुबली की किसी भी क्षेत्र से प्राप्त मूर्तियों की तुलना में अधिक मूर्तियाँ बनीं वहीं भरत की एक भी मूर्ति उत्कीर्ण नहीं है । पश्चिम भारत के कुंभारिया और देलवाड़ा जैसे श्वेताम्बर स्थलों पर ऋषभनाथ के जीवन दृश्यों के सन्दर्भ में भरत-बाहुबली के बीच युद्ध से संबंधित कथा प्रसंग को भी दिखलाया गया है। देवगढ़ से भरत की १०वीं-११वीं शती ई० की पाँच मूर्तियाँ मिली हैं जो मन्दिर सं० १, २ और १२ में हैं ( चित्र ३०)। सभी उदाहरणों में भरत कायोत्सर्गमुद्रा में निर्वस्त्र और तपस्यारत हैं । वक्षःस्थल पर श्रीवत्स चिह्न से युक्त भरत की मूर्तियों में जिन मूर्तियों के त्रिछत्र के स्थान पर एक छत्र उत्कीर्ण है तथा कूछ में प्रभामण्डल, चामरधारी सेवक, मालाधारीगन्धर्व, दुन्दुभिवादक जैसे प्रातिहार्थ भी दिखाये गये हैं। ये लक्षण भरत के तीर्थंकर के समान प्रतिष्ठापरक स्थिति के परिचायक हैं। इन उदाहरणों में सबसे महत्त्वपूर्ण भरत के समीप ही नवनिधि के सूचक नवघटों एवं दण्ड, छत्र, चक्र, काकिणी ( कौड़ो ), गृहपति ( हलयुक्त ), सेनापति ( वज्र युक्त ), पुरोहित, छत्रयुक्त अश्व, गज एवं स्त्री जैसे रत्नों का दिखाया जाना है। नवघटों के ऊपर निधिपति कुबेर की आकृति बनी है जिनके एक हाथ में धन का थैला है ।१९ (२) सगर चक्रवती : इनका जन्म अयोध्या नगरी के इक्ष्वाकुवंशी राजा समुद्रविजय के यहाँ हुआ था। इनकी माता का नाम सुबाला था। ये सभी लक्षणों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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