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________________ शलाका पुरुष : १२१ भरत चक्रवर्ती ने सर्वप्रथम पूर्व में व्यन्तर देवों के अधिपति मागध देव और तदुपरान्त अङ्ग, बंग, कलिंग, मगध, कुरु, अवन्ती, पांचाल, काशी, कौशल, वैदर्भ, मद्र, कच्छ, चेदि, वत्स, सुह्य, पुण्ड्र, औण्ड्र, गौड़, दशार्ण, कामरूप, कश्मीर, उशीनर व मध्यदेश के राजाओं को जीतकर अपने अधीन किया । दक्षिण में उसने त्रिकलिंग, ओद्र, कच्छ, प्रातर, केरल, चेर, पुन्नाग, कूट, ओलिक, महिष, कर्मकुर, पाण्ड्य व अन्तरपाण्ड्य के राजाओं को अपने अधीन किया । इसी प्रकार पश्चिम के सभी राज्यों को जीतने के बाद भरत ने उत्तर में विजयार्धपर्वत के स्वामी विजयार्ध नामक देव तथा अनेक म्लेच्छ राजाओं को अधीन करने के पश्चात् हिमवत्कूट पर निवास करने वाले देव को भी अपने अधीन कर लिया । 13 इस प्रकार चक्रवर्ती भरत ने हिमवान पर्वत से लेकर पूर्व दिशा के समुद्र तक और दक्षिण समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक समस्त पृथ्वी को वश में करने के बाद वृषभाचल की शिलापट्ट पर अपने दिग्विजय के सन्दर्भ में स्वयं प्रशस्ति लिखी । १४ दिग्विजय के पश्चात् भरत चक्रवर्ती अयोध्या आने को तत्पर हुए। नगर के प्रवेश-द्वार पर उनके चक्ररत्न के रुक जाने तथा मंत्रियों द्वारा उसका कारण पूछने पर जब उन्हें अपने भाईयों, विशेषरूप से बाहुबली के प्रणाम हेतु न आने व उनके मन के ईर्ष्या तथा द्वेषपूर्ण भावनाओं के बारे में पता चला तो भरत और बाहुबली के बीच युद्ध अवश्यम्भावी हो गया । किन्तु बुद्धिमान मंत्रियों ने भाई-भाई के इस युद्ध में व्यर्थ हो सेना के संहार को रोकने के उद्देश्य से उनके लिये तीन प्रकार " के युद्ध-नेत्रयुद्ध, जलयुद्ध तथा मल्लयुद्ध निश्चित किये। तीनों ही युद्धों में बाहुबली को विजयी होता देख कुपित भरत ने उन पर चक्ररत्न चला दिया । भरत के इस व्यवहार से बाहुबली को बहुत दुःख हुआ और इस संसार से विरक्त हो उन्होंने दीक्षा ले ली । चक्रवर्ती भरत के चौसठ लक्षणों, चौदह रत्नों व नौ निधियों का उल्लेख आदिपुराण में मिलता है । १६ इसमें भरत चक्रवर्ती द्वारा ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि का भी उल्लेख हुआ है । १७ ऋषभदेव के मोक्ष प्राप्त कर लेने के बाद शोकाकुल भरत को ऋषभदेव के गणधर वृषभसेन द्वारा इस नश्वर संसार व पूर्वभवों के बारे में बतलाये जाने पर तथा एक दिन दर्पण में स्वयं के श्वेत केश देखकर संसार से विरक्ति हो गयी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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