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________________ । तीर्थंकर ( या जिन) : १०५ -गाँव में चला गया। बैल चरते चरते कहीं दूर निकल गये। वापस लौट -कर आने पर जब उस ग्वाले ने उन बैलों को वहाँ नहीं देखा तो उसने महावीर से उनके बारे में पूछा । किन्तु उनसे कोई उत्तर न पाकर वह - स्वयं बैलों को ढूंढने निकल पड़ा। प्रातः उसने जब बैलों को पुनः महावीर -के पास बैठा देखा तो क्रोधित हो उन्हें बैल बाँधने की रस्सी से मारने चला । उसी समय इन्द्र वहाँ आ गये दैवी प्रभाव से ग्वाले के हाथ ऊपर उठे रह गये । इस घटना के बाद इन्द्र ने इनके उपसर्ग टालने के लिये सिद्धार्थं नामक व्यन्तर देव को इनके पास नियुक्त कर दिया । २४८ - इसी प्रकार शूलपाणि यक्ष के विभिन्न उपसर्गों का भी उल्लेख हुआ है । एक बार महावीर विहार कर किसी एकान्त स्थान की खोज में नगर - के बाहर स्थित शूलपाणि यक्ष के यक्षायतन में ठहर गये । यद्यपि ग्राम- वासियों ने यक्ष की क्रूरता आदि के बारे में महावीर को बता दिया था, तब भी महावीर ने स्वयं परिषह सहने और यक्ष को प्रतिबोध देने के “ लिये वहीं ठहरना उचित समझा। रात्रि के अंधकार में जब यक्ष वहाँ आया तो उसने अपना पराक्रम दिखलाने व ध्यानस्थ महावीर को विचलित करने के लिये भयंकर हाथी का रूप धारण कर महावीर को दाँतों से - बुरी तरह गोदा व पैरों से रौंदा । फिर पिशाच का रूप बनाकर तीक्ष्ण नखों व दाँतों से इनके शरीर को नोचा, सर्प बन कर दंश किया तथा उनके आँख, नाक, कान, सिर, दाँत, नख व पीठ इन सात स्थानों पर भयंकर वेदना दी । इन सब उपसर्गों को शान्त भाव से सहता देखकर यक्ष ने अन्ततः महावीर के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की । २४९ इसी प्रकार कुछ और उपसर्गों का वर्णन भी श्वेताम्बर परम्परा में हुआ है। कठोर तप करते हुए छद्मस्थ अवस्था के जब उनके बारह वर्ष व्यतीत हो गये तब वैशाख शुक्ला दशमी के दिन हस्त व उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में जृम्भिक ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के किनारे - शाल वृक्ष के नीचे महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुयी । उसी समय सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र विभिन्न देवों के साथ वहाँ आया और उसने - ज्ञानकल्याणक सम्बन्धी पूजा की। वर्धमान अब परमेष्ठी तथा अर्हन्त -कहलाये | २५० दोनों ही सम्प्रदायों के ग्रन्थों के अनुसार केवलज्ञान प्राप्त करने के - बाद तीस वर्ष तक इन्होंने विभिन्न प्रदेशों में विहार किया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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