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तीर्थकर (या जिन) : ९९ मत्तहाथी, वृश्चिक, सर्प व वीभत्स वैताल का रूप धारण कर पार्श्वनाथ को अनेक प्रकार की यातनाएँ दी और उनके अविचलित रहने पर भयंकर वृष्टि की। जब वर्षा का जल चारों ओर से पार्श्व के नासाग्र तक पहुँच गया और तब भी उनका ध्यान भंग नहीं हुआ तो धरणेन्द्र ने वहाँ पहुँच कर दीर्घनाल युक्त कमल की रचना की एवं उनके शरीर को सप्तसर्पफणों के छत्र से ढक लिया । अन्त में मेघमाली ने अपनी पराजय स्वीकार कर पार्श्वनाथ से क्षमा माँगी ।२३०
चैत्रकृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल विशाखा नक्षत्र में पार्श्वनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और उसी समय देवों ने चतुर्थकल्याणक की पूजा की। बारह सभाओं के साथ धर्मोपदेश करते हुए पाँच माह कम सत्तर वर्ष तक पार्श्वनाथ ने विहार किया और जब उनकी आयु का एक माह शेष रह गया तब सम्मेदाचल पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर निर्वाण प्राप्त किया। उसी समय इन्द्रों ने आकर इनकी निर्वाणकल्याणक पूजा की ।२३१ अन्य तीर्थंकरों की भाँति पार्श्वनाथ ने भी पूर्वभव की साधना के फलस्वरूप तीर्थंकर पद प्राप्त किया। दिगम्बर परम्परा में इनके आठ व श्वेताम्बर परम्परा में दस पूर्व भवों का उल्लेख मिलता है ।२३२
पार्श्वनाथ उत्तर और दक्षिण भारत में समान रूप से लोकप्रिय रहे हैं जिनकी मूर्तियाँ ल० पहली शती ई० पू० से ही मथुरा के आयागपट पर एवं प्रिंस ऑव वेल्स म्यूज़ियम, बम्बई में देखी जा सकती हैं । तीर्थकरों में सर्वप्रथम पार्श्वनाथ के साथ ही लक्षण का निर्धारण हुआ और प्रारम्भिक मूर्तियों में पाँच (बादामी, अयहोल, प्रिंस ऑव वेल्स संग्रहालय, बम्बई ) या सात सर्पफणों के छत्र से इन्हें आच्छादित दिखाया गया (चित्र १०-१२) जिसकी पृष्ठभूमि शम्बर या मेघमाली के उपसर्गों के प्रसंग में धरणेन्द्र द्वारा सर्पफणों के छत्र की छाया के सन्दर्भ में देखी जा सकती है। पार्श्वनाथ के साथ तीन, सात और ११ सर्पफणों के प्रदर्शन का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है किन्तु मूर्तियों में अधिकांशतः सात सर्पफणों का छत्र ही दिखाया गया है। पार्श्वनाथ का लांछन सर्प और यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र और पद्मावती हैं।
कुषाणकाल में मथुरा में पार्श्व की सर्वाधिक स्वतंत्र मूर्तियाँ बनीं जिनमें पार्श्व को ध्यानमुद्रा में आसीन या कायोत्सर्ग में निरूपित किया गया है । ल० पाँचवीं शती ई० से पार्श्व की मूर्तियों में सर्प-फणों के छत्र
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