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तोर्थकर (या जिन) : ९७ विश्सेन के यहाँ हुआ था। इनकी माता का नाम ब्राह्मी था । अन्य जिन माताओं की तरह ब्राह्मी ने भी सोलह शुभ स्वप्न व मुख में प्रवेश करता हाथी देखा था। तदनन्तर पति से उन स्वप्नों का फल जानकर व देवों द्वारा किये गये गर्भकल्याणक उत्सव से वे अति प्रसन्न हुईं। पौष कृष्ण एकादशी के दिन अनिल योग में इन्होंने जिन बालक को जन्म दिया। सौधर्म आदि इन्द्रों ने इन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर इनका जन्मकल्याणक किया और 'पार्श्वनाथ' नाम रखा ।२२3 श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार गर्भावस्था में इनकी माता ने एक रात पार्श्व में सर्प देखा था, इसी कारण इनका नाम 'पार्श्वनाथ' रखा गया ।२२४
पार्श्वनाथ की आयु सौ वर्ष तथा शरीर नौ हाथ ऊँचा था। शरीर की कान्ति धान के छोटे पौधे के समान हरे रंग की थी तथा वे समस्त लक्षणों से सुशोभित थे।२२५ कुमारकाल के तीस वर्ष व्यतीत होने पर एक दिन अयोध्या के राजा ने विभिन्न भेंट आदि के साथ अपने दूत को पार्श्वनाथ के पास भेजा। पार्श्वनाथ द्वारा अयोध्या के बारे में पूछे जाने पर सर्वप्रथम उसने वृषभदेव व तत्पश्चात् अयोध्या के बारे में बताया। वृषभदेव के बारे में सुनते ही उन्हें अतीत भवों का ज्ञान हो गया और संसार से विरक्ति हो गयी। तभी लौकान्तिक देव आये और इन्द्रादि देवों ने दीक्षा कल्याणक किया।२२६ पार्श्वनाथ अश्ववन में तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हुए। पंचमुष्टियों से लंचित केशों को इन्द्र ने आदर पूर्वक उठाकर क्षीरसागर में प्रवाहित किया।
छद्मस्थ अवस्था में चार माह व्यतीत होने के बाद जब वह वन में देवदास वृक्ष के नीचे विराजमान थे उसी समय पूर्वभव का शत्रु कमठ का जीव जो शम्बर नामक असुर था, आकाशमार्ग से उधर से कहीं जा रहा था । अकस्मात् अपने विमान के रुक जाने से उसे अपने पूर्वभव के वैर का स्मरण हो आया और फलस्वरूप पार्श्वनाथ का ध्यान भंग करने के लिये उसने कई प्रकार के उपसर्ग, महावृष्टि व छोटे-मोटे पर्वत खण्डों को उपस्थित किया किन्तु पार्श्वनाथ ध्यानमग्न और पूरी तरह अविचलित रहे । उपसर्गकाल में ही अतिवृष्टि से पार्श्वनाथ की रक्षा के लिए नागकुमार देवों के इन्द्र धरणेन्द्र अपनी पत्नी के साथ पृथ्वीतल से बाहर निकल आये और पार्श्वनाथ को अपने फणों के ऊपर उठा लिया तथा उसकी पत्नी ( पद्मावती) ने वज्रमय छत्र के शीर्षभाग (पार्श्वनाथ के ध्यान के प्रभाव) से छायाकर पार्श्व की वर्षा से रक्षा की अन्ततः
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