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८८ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
लोग भयाक्रान्त थे जो इनके गर्भ में आने के साथ ही शान्त हो गयी, फलस्वरूप इनका नाम 'शान्तिनाथ' रखा गयी ।
इनकी आयु एक लाख वर्ष व शरीर चालीस धनुष ऊँचा था। उत्तरपुराण में सर्वप्रथम शान्तिनाथ के चिह्नों का ही उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार उनके शरीर में ध्वज, तोरण, सूर्य, चन्द्र, शंख तथा चक्र आदि चिह्न थे। अनेक प्रकार के सुखों का उपभोग करते हुए जब कुमारकाल के उनके पचीस हजार वर्ष बीत गये तब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ और राज्य का भी पचीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर इन्हें तेज को प्रकट करने वाले चौदह रत्न-चक्र, छत्र, खड्ग, दण्ड, काकिणी, चर्म, चूड़ामणि, पुरोहित, स्थपति, सेनापति, गृहपति, कन्या, गज तथा अश्व और नौ निधियाँ प्राप्त हुई ।१८९ ये सभी चक्रवर्ती पद के सूचक हैं। ऋषभपुत्र भरत चक्रवर्ती के देवगढ़ से प्राप्त मूर्तियों में भी नव निधियों और १४ रत्नों का अंकन देखा जा सकता है । १९०
चक्रवर्ती रूप में अनेक प्रकार के भोगों का उपभोग करते हुए पुनः उनके पचीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब देखकर उन्हें संसार से विरक्ति हो गयी, तदुपरान्त नारायण नामक अपने पुत्र को राज्य सौंपकर ये दीक्षित हो गये। तत्पश्चात् शान्तिनाथ ने सहस्राम्रवन में जाकर पंचमुष्टियों से केशों का लुंचन किया और वस्त्रआदि समस्त उपकरण छोड़कर दिगम्बर मुद्रा धारण कर लिया। इन्द्र ने उनके केशों को पिटारे में रखकर क्षीरसागर में प्रवाहित कर दिया । तदुपरान्त शान्तिनाथ ने मन्दिरपुर नगर के राजा सुमित्र से प्रासुक आहार प्राप्त किया। छद्मस्थ अवस्था में सोलह वर्ष व्यतीत करने एवं धर्म का उपदेश देने हेतु विहार करने के बाद आयु के एक माह शेष रहने पर सम्मेदशिखर पर इन्होंने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन निर्वाण प्राप्त किया ।१९१
शान्तिनाथ की स्वतंत्र मूर्तियों का अंकन ल० ७वीं शती ई० से ही उत्तर भारत के विभिन्न श्वेताम्बर और दिगम्बर कला केन्द्रों पर लोकप्रिय था । देवगढ़, खजुराहो, चाँदपुर, कुंभारिया तथा कई अन्य स्थलों पर शान्तिनाथ के मन्दिरों का भी निर्माण हुआ । शान्तिनाथ की स्वतंत्र मूर्तियों के उदाहरण मुख्यतः देवगढ़, खजुराहो चाँदपुर, कुंभारिया, विमलवसही, कौशाम्बी, मालादेवी मन्दिर ( ग्यारसपुर ), अहाड़, राजपारा ( मिदनापुर ), पक्बीरा (पुरुलिया ) और बारभुजी एवं त्रिशूल
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