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________________ तीर्थकर (या जिन) : ८९ गुफाओं से मिलते हैं जिनमें मग लांछन अंकित है किन्तु पारम्परिक यक्षयक्षी गरुड एवं निर्वाणी ( या महामानसी) के स्थान पर अधिकांशतः कुबेर और अम्बिका निरूपित हैं। विमलवसही एवं कुंभारिया के शान्तिनाथ और महावीर मन्दिरों ( ११वीं-१२वीं शती ई०) के वितानों पर शान्तिनाथ के जीवन दृश्यों का विस्तारपूर्वक अंकन हआ है जिसमें शान्तिनाथ के पूर्व जन्म की कथा को भी अभिव्यक्त किया गया है ( चित्र ३८-३९, ) ।१९२ उत्तरभारत में यद्यपि शान्तिनाथ का शिल्पांकन विशेष लोकप्रिय था किन्तु दक्षिण भारत से इनकी मूर्ति के उदाहरण नहीं मिले हैं। एलोरा में भी शान्तिनाथ की कोई मूर्ति नहीं है। १७. कुन्थुनाथ : सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुनाथ चक्रवर्ती भी थे। इनका जन्म हस्तिनापुर के कौरववंशी काश्यपगोत्री राजा सूरसेन के यहाँ हुआ था। इनकी माता का नाम श्रीकान्ता था जिन्होंने देवों द्वारा की गयी रत्नवष्टि से पूजित होने, सोलह शभस्वप्न व मुख में प्रवेश करता हाथी देखने के बाद सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन आग्नेय योग में जिन बालक का जन्म होने पर इन्द्र एवं अन्य देवों तथा धरणेन्द्र ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया और 'कून्थ' नाम रखा ।१९३ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जन्म अवसर पर महाराज ने मित्रजनों के समक्ष कहा-“गर्भ समय में बालक की माता ने कुन्थु नामक रत्नों की राशि देखी अतः बालक का नाम 'कुन्थुनाथ' रखा जाता है ।" १९४ । ___इनकी आयु पंचानबे हजार वर्ष व शरीर पैंतीस धनुष ऊँचा था। कुमारकाल के तेइस हजार सात सौ पचास वर्ष व्यतीत हो जाने पर इन्हें राज्य व इतना ही समय और व्यतीत हो जाने पर चक्रवर्ती लक्ष्मी प्राप्त हुई । एक दिन षडंग सेना सहित वन में क्रीड़ा को गये कुन्थनाथ जब वापस नगर की ओर लौट रहे थे तभी मार्ग में एक मुनि को आतपयोग में स्थित देख व अपने पूर्वभव का स्मरण कर उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ और निर्वाण प्राप्त करने की इच्छा से संसार के प्रति उन्हें विरक्ति हो गयी। उसी समय लौकान्तिक देवों ने उनका स्तवन किया। कुन्थु ने सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण की । उसी समय उन्हें मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। कठिन तपश्चरण करते हुए सोलह वर्ष व्यतीत हो जाने पर एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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