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द्वितीय अध्याय
प्रमाण- लक्षण और प्रामाण्यवाद
श्रमणसंस्कृति के परिचायक बौद्ध एवं जैन दोनों दर्शन प्रमाण को ज्ञानात्मक मानते हैं । नैयायिकों को अभीष्ट कारकसाकल्य, इन्द्रिय एवं इन्द्रियार्थसन्निकर्ष', सांख्यसम्मत इन्द्रियवृत्ति, मीमांसकाभिमत ज्ञातृव्यापा ́ आदि को ये दोनों दर्शन अज्ञानात्मक या अचेतनात्मक होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं ।" इनके मत में प्रमाण ज्ञानात्मक है, क्योंकि वह ही हेय एवं उपादेय अर्थ का ज्ञान कराने में समर्थ होता है । ' बौद्धमत में वही अर्थप्रापक, प्रवर्तक एवं संवादक होता है तथा जैन दर्शन में वही निश्चयात्मक एवं संवादक रूप में अभीष्ट है। जिस ज्ञान को ये दोनों दर्शन प्रमाण मानते हैं वह सम्यग्ज्ञान कहा गया है।
प्रमाण को ज्ञानात्मक मानते हुए भी तत्त्वमीमांसा की भिन्नता के कारण इन दोनों दर्शनों के प्रमाण -लक्षण में अनेक मौलिक मतभेद हैं। बौद्ध दार्शनिक दिड्नाग (पांचवी शती) से कमलशील (आठवीं शती) तक एवं जैन दार्शनिक सिद्धसेन (पांचवी शती) से हेमचन्द्र (बारहवीं शती) तक प्रमाण एवं प्रामाण्यवाद के सम्बन्ध में जो ऊहापोह हुआ है उस पर प्रस्तुत अध्याय में विचार किया गया है। प्रारम्भ में बौद्ध एवं जैन दर्शन के अनुसार प्रमाण स्वरूप का संक्षिप्त निरूपण किया गया है । तदनन्तर जैन दार्शनिकों द्वारा बौद्धों के प्रमाण - लक्षण की आलोचना प्रस्तुत की गयी है। जैन दार्शनिकों द्वारा की गयी आलोचना का समीक्षण करने के अनन्तर प्रामाण्यवाद पर विचार किया है।
बौद्ध दर्शन में प्रमाण- लक्षण
बौद्ध दर्शन में प्रमाणलक्षण का निरूपण तीन प्रकार से मिलता है। प्रथम प्रकार में अज्ञात अर्थ ज्ञापक या प्रकाशक ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। द्वितीय प्रकार में अविसंवादी ज्ञान को एवं तृतीय प्रकार में अर्थसारूप्य को प्रमाण कहा गया है।
प्रथम लक्षण
बौद्धों के प्रथम प्रकार के प्रमाण - लक्षण में अज्ञात अर्थ के ज्ञापक ज्ञान को रखा जा सकता है।
१. अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनकं कारकसाकल्यं साधकतमत्वात् प्रमाणम् । प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० १९
२. तस्याः करणं त्रिविधं । कदाचिद् इन्द्रियं कदाचिदिन्द्रियार्थसन्निकर्षः कदाचिज्ज्ञानम् ।-तर्कभाषा (केशवमिश्र), पृ० ४६ (प्रत्यक्ष -- प्रमाण विवेचन में)
३. प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम् ।- सांख्यकारिका, ५
४. तत्र व्यापाराच्च प्रमाणता । - श्लोकवार्तिक, प्रत्यक्ष सूत्र, ६१
५. (अ) ज्ञानं प्रमाणं, नाज्ञानमिन्द्रियार्थसन्निकर्षादि - प्रमाणवार्तिक (म.न.) १.३
(ब) सन्निकर्षादेरज्ञानस्य प्रामाण्यमनुपपन्नम् अर्थान्तरवत् । - लघीयस्त्रयवृत्ति, १.३,
(स) प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में कारकसाकल्य, इन्द्रियार्थसन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति एवं ज्ञातृव्यापार को प्रमाण मानने का खण्डन किया है । द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ. १९-७४
६. (१)
-धी प्रमाणता ।
प्रवृत्तेस्तत्प्रधानत्वात् हेयोपादेयवस्तुनि ॥ - प्रमाणवार्तिक, १.५
(२) हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् ।- - परीक्षामुख, १.२
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