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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन - परम्परा
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एवं प्रमाणमीमांसा में पारस्परिक विरोध रहा है। बौद्ध दार्शनिक जहां सत् का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व मानकर उसे क्षणिक सिद्ध करते हैं वहां जैन दार्शनिक क्षणिक में अर्थक्रिया को अनुपपन्न ठहरा कर सत् को उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यात्मक सिद्ध करते हैं । २८७ जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य ध्रुव रहता है तथा उसकी पर्याय प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है, जबकि बौद्ध दार्शनिक प्रतिक्षण सम्पूर्ण अर्थ का ही विनाश प्रतिपादित कर उसे क्षणिक सिद्ध करते हैं । उनके अनुसार दूसरे क्षण में वह वस्तु दूसरी ही होती है। विज्ञानवादी एवं शून्यवादी बौद्ध दार्शनिक जहाँ बाह्य अर्थ की सत्ता अंगीकार नहीं करते, वहां जैन दार्शनिक बाह्य पदार्थों को यथार्थ मानते हैं।
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बौद्ध दार्शनिक जहां कार्य एवं कारण के नियम को संवृति सत् मानते हैं वहां जैन दार्शनिक इसे परमार्थ सत् रूप में अंगीकार करते हैं। बौद्ध दार्शनिक शब्द एवं अर्थ का पारस्परिक सम्बन्ध नहीं मानते, जबकि जैन दार्शनिक शब्द से अर्थ का योग्यता सम्बन्ध स्वीकार करते हैं ।
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प्रमाण के स्वरूप के विषय में दोनों दर्शन जहाँ सम्यग्ज्ञान को प्रमाण मानने में एकमत हैं वहां वे उसकी निर्विकल्पकता एवं सविकल्पकता को लेकर विवाद करते हैं। बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष-प्रमाण निर्विकल्पक होता है तो जैन दर्शन में सविकल्पक एवं व्यवसायात्मक ज्ञान ही प्रमाण होता है । बौद्ध दार्शनिक दो प्रमाण अंगीकार करते हैं— प्रत्यक्ष एवं अनुमान । उनके अनुसार प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण एवं अनुमान का विषय सामान्य लक्षण है। दोनों के विषय पृथक् हैं। जैन दार्शनिक प्रमाण संप्लव के सिद्धान्त को अंगीकार करते हैं, जिसके अनुसार एक ही सामान्य- विशेषात्मक प्रमेय अनुमान एवं प्रत्यक्ष दोनों प्रमाणों का विषय बन सकता है। जैन दार्शनिक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम को जहां प्रमाणकोटि में रखते हैं वहां बौद्ध दार्शनिक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को प्रमाणकोटि से बहिर्भूत रखते हैं । आगम -प्रमाण का समावेश वे अनुमान - प्रमाण में कर लेते हैं ।
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इस प्रकार बौद्ध एवं जैन दार्शनिक प्रमाणसम्बद्ध कुछ मान्यताओं में एकमत हैं तो अनेक मान्यताओं में परस्पर मतभेद भी रखते हैं। -
२८६. अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद् वस्तुनः । - न्यायबिन्दु, १.१५ २८७ उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् । - तत्त्वार्थसूत्र, ५.२९
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