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________________ प्रमाण-लक्षण और प्रामाण्यवाद बौद्ध न्यायग्रंथों में प्रमाण का यही सर्वाधिक प्राचीन पारमार्थिक लक्षण है। दिड्नाग के टीकाकार जिनेन्द्रबुद्धि ने विशालामलवती टीका में इसका प्रतिपादन करते हुए कहा है कि अज्ञात अर्थ का ज्ञापक ज्ञान प्रमाण का सामान्य लक्षण है। स्वयं दिइनाग के उपलब्ध प्रमाणसमुच्चय ग्रंथ में यद्यपि इसका उल्लेख नहीं है तथापि उनके द्वारा प्रतिपादित प्रमाणस्वरूप से उसकी अज्ञातार्थज्ञापकता का स्पष्ट भान होता है । वे प्रतिपादित करते हैं कि स्मृति,इच्छा,द्वेष,प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाण नहीं हैं ,क्योंकि इनके द्वारा अधिगत विषय का ही ज्ञान कराया जाता है। स्पष्टतः इस कथन से वे प्रमाण की अज्ञातार्थज्ञापकता का प्रतिपादन करना चाहते हैं । वे कहते हैं कि स्मृति ,इच्छा, द्वेषादि को प्रमाण माना जाय तो अनवस्था दोष का प्रसंग उपस्थित होता है। दिइनाग के इस अभिप्रायको जिनेन्द्रबुद्धि ने भी अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि आचार्य दिङ्नाग को प्रमाण की ज्ञातविषयकता अभीष्ट नहीं है,क्योंकि उसमे अनवस्था दोष उपस्थित होता है ।१० प्रमाण के इस लक्षण का दिइनाग के पश्चात् धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, आदि बौद्ध दार्शनिकों ने उपपादन एवं समर्थन किया है । धर्मकीर्ति ने यद्यपि प्रमाण का एक अन्य लक्षण “अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है"११ भी प्रस्तुत किया है तथापि वे गौण रूप से “अज्ञातार्थप्रकाशो वा" कहकर अज्ञात अर्थ के प्रकाशक ज्ञान को भी प्रमाण कहते हैं । प्रज्ञाकरगुप्त ने अज्ञातार्थप्रकाशक ज्ञान को प्रमाण का पारमार्थिक लक्षण कहा है तथा अविसंवादी ज्ञान को उसका सांव्यावहारिक लक्षण बतलाया है ।१३ धर्मोत्तर ने प्रमाण को अनधिगत विषयक मानने के पीछे यह हेतु दिया है कि अर्थ के अधिगत हो जाने पर उसके प्रति पुरुष प्रवर्तित हो जाता है तथा अर्थ की प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार अर्थ का अधिगम हो जाने पर प्रमाणव्यापार समाप्त हो जाता है, इसलिए अनधिगत अर्थविषयक ज्ञान को प्रमाण कहना चाहिए।" अधिगत अर्थ का ज्ञान अप्रमाण है ,क्योंकि उसमें पूर्व अधिगत ज्ञान से कोई वैशिष्ट्य नहीं है।१५ ७.अज्ञातार्थज्ञापकमिति प्रमाणसामान्यलक्षणम् ।-विशालामलवती , प्रमाणसमुच्चय, पृ० ११. ८. स्मृतीच्छाद्वेषादिवत् पूर्वाधिगमविषयत्वात् ।- Dignaga, on perception, संस्कृतटेक्स्ट, ३, एवं तत्त्वार्थवार्तिक, १.१२ पृ०५६ ९.(१) यदि सर्वेषां ज्ञानानां प्रमाणत्वमिष्यते प्रमाणानवस्था प्रसज्यते । स्मृतादिवत्।-प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, पृ०११. (२) नाऽपि पुनः प्रत्यभिज्ञाऽनवस्था स्यात् स्मृतादिवत्-प्रमाणसमुच्च्य,३ १०. आचार्यस्य ज्ञातविषयकं प्रमाणं नेत्यत्र कारणमाह अनवस्थाप्रसंगादिति ।-विशालामलवती, प्रमाणसमुच्चय, पृ० ११. ११. प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् ।-प्रमाणवार्तिक, १.३ १२. प्रमाणवार्तिक, १.७ १३. तत्र पारमार्थिकप्रमाणलक्षणमेतत् । पूर्वं तु सांव्यावहारिकस्य |-- प्रमाणवार्तिकभाष्य, पृ० ३०.२२ । १४. अधिगते चार्थे प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितधार्थः । तथा.च सत्याधिगमात् समाप्तः प्रमाणव्यापारः । अत एव चानधिगतविषयं प्रमाणम् ।-न्यायबिन्दुटीका, १.१, पृ० ११. १५. येनैव ज्ञानेन प्रथममधिगतोऽर्थः तेनैव प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः । तत्रैव चार्थे किमन्येन ज्ञानेनाधिकं कार्यम् । ततोऽधिगतविषयमप्रमाणम् ।-न्यायबिन्दुटीका, १.१. पृ० ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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