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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
जैन ऊँट को खाने के लिए क्यों नहीं उद्यत होता २७१ । धर्मकीर्ति के इस कथन का उत्तर अकलङ्क ने न्यायविनिश्चय में दिया है। अकलङ्क कहते हैं कि पूर्वपक्ष को जाने बिना दूषण देना विदूषकता है-'पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः ।२७२ अर्थात् धर्मकीर्ति ने अनेकान्त के पूर्वपक्ष को सम्यक् रूपेण नहीं समझा है । अकलङ्क प्रतिपादित करना चाहते हैं कि समस्त पदार्थ सामान्यविशेषात्मक होकर भी परस्पर भिन्न हैं । वे धर्मकीर्ति का खण्डन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार सुगत पूर्वभव में मृग थे एवं मृग भी बाद में सुगत हुआ फिर भी बौद्ध मृग के स्थान पर सुगत को क्यों नहीं खाते
और मृग की वन्दना क्यों नहीं करते? वस्तुतःप्रत्येक पदार्थ में भेद व्यवस्था है। वे द्रव्यरूप से समान होते हुए भी पर्याय रूप से भिन्न होते हैं ।२७३
धर्मकीर्ति के पूर्व दिइनाग आदि किसी भी दार्शनिक के उपलब्ध ग्रन्थों में जैन दर्शन के प्रमाणशास्त्रीय अथवा तत्त्वमीमांसीय खण्डन का उल्लेख नहीं मिलता। धर्मकीर्ति के पूर्व जैन एवं बौद्ध दार्शनिकों में वाद अवश्य होता रहा है । इसका प्रमाण है जैन दार्शनिक मल्लवादी क्षमाश्रमण के द्वारा बौद्धों को परास्त किया जाना।२७४ मल्लवादी ऐसे प्रथम जैन दार्शनिक हैं जिन्होंने वसुबन्यु एवं दिइनाग के सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए उनका खण्डन प्रस्तुत किया है । उन्होंने वसुबन्धु व दिड्नाग सम्मत प्रत्यक्ष, अपोह, आदि अनेक बौद्ध मान्यताओं का खण्डन किया है । इस प्रकार मल्लवादी दिङ्नाग के उत्तरकाल में एक महान् जैनदार्शनिक हुए जिन्होंने द्वादश अरों में नय का विवेचन करते हुए प्रमाण -शास्त्रीय विषय को भी गहराई से परखा। सम्प्रति मल्लवादी का ग्रंथ द्वादशारनयचक्र दिङ्नाग के मन्तव्यों को भी समझने में सहायक सिद्ध हो रहा है ।
मल्लवादी के पूर्व एवं दिइनाग के समय ही सिद्धसेन ने जैन न्याय के प्रथम एवं सारगर्भित ग्रंथ न्यायावतार की रचना की । न्यायावतार में उन्होंने जैन-प्रमाणशास्त्र को सर्वप्रथम प्रस्तुत किया,जिसमें सहज रूप से बौद्ध प्रमाणशास्त्रीय मन्तव्यों का भी खण्डन हो गया। सिद्धसेन ने हेतु का लक्षण अन्यथानुपपन्नत्व देकर बौद्ध दार्शनिक दिइनाग के त्रिरूपत्व हेतु का खण्डन किया है ।२७५ दिइनाग ने जहाँ प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण तथा अनुमान का विषय सामान्यलक्षण माना है वहाँ सिद्धसेन ने २७१. एतेनैव यदहीकाः किमप्यश्लीलमाकुलम् ।
प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसंपवात् ।। सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः।।
चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति ।।-प्रमाणवार्तिक ३.१८१-८३ २७२: न्यायविनिश्चय, ३.३७२ २७३. सुगतोपि मृगो जातः मृगोपि सुगतस्तथा ।
तथापि सुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ।। तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः
चोदितो दधि खादेति किमुष्टमभिधावति ॥ न्यायविनिश्चय, ३.३७३-७४ २७४.मल्लवादी क्षमाश्रमण ने वीरसंवत् ८८४ में बुद्धानन्द नामक बौद्ध दार्शनिक को छह दिन के शास्त्रार्थ के पश्चात् राजसमा
में पराजित किया था, इसका उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है। द्वादशारनयचक्र (ज) भाग, १, प्राक्कथन, पृ० १४ २७५. अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् । -न्यायावतार, २२
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