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________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मौलिक चिन्तकों की यदि गणना की जाय तो दिगम्बर सम्प्रदाय में कुन्दकुन्द समन्तभद्र, पात्रस्वामी, सुमति, अकलङ्क एवं विद्यानन्द का नाम अग्रगण्य है तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सिद्धसेन, मल्लवादी, जिनभद्र, हरिभद्र, अभयदेवसूरि एवं हेमचन्द्र का नाम प्रमुख है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में प्रमाण सम्बन्धी विवेचन लगभग एक जैसा है । जिन मान्यताओं के सन्दर्भ में दोनों में मौलिक मतभेद है उनमें प्रमुख है दिगम्बर दार्शनिकों द्वारा प्रमाण को अनधिगत अर्थ का ग्राही मानना तथा श्वेताम्बर दार्शनिकों द्वारा गृहीतग्राही ज्ञान को भी प्रमाण स्वीकार करना । विद्यानन्द के अतिरिक्त समस्त दिगम्बर जैन दार्शनिक प्रमाण को अनधिगतअर्थ का ग्राहक प्रतिपादित करते हैं, जबकि श्वेताम्बर जैन दार्शनिक एकमत से प्रमाण को अधिगत अर्थ का भी ग्राहक स्वीकार करते हैं। दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दार्शनिकों में अन्य मतभेद प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत केवलज्ञान के सम्बन्ध में है। दिगम्बर दार्शनिक केवलज्ञानी को कवलाहारी नहीं मानते हैं, जबकि श्वेताम्बर दार्शनिक उन्हें कवलाहारी भी स्वीकार करते हैं । दिगम्बर दार्शनिकों ने अकिञ्चित्कर हेत्वाभास का प्रतिपादन किया है जबकि श्वेताम्बर दार्शनिकों ने इसे महत्त्व नहीं दिया । बौद्ध एवं जैन : बिंदु एवं प्रतिबिंदु भारतीय दार्शनिक परम्परा में जो संघर्ष बौद्धों के साथ न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसा दर्शन का रहा,उतना जैन दार्शनिकों का नहीं रहा। जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शन श्रमण परम्परा के दर्शन हैं,अतः इनका संघर्ष वैदिक -परम्परा के साथ अधिक था,परस्पर में कम । फिर भी जैन प्रमाण -शास्त्रीय ग्रंथों का सूक्ष्मावलोकन करने पर ज्ञात होता है कि आठवीं से बारहवीं सदी के ग्रंथ बौद्ध प्रमाणमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा के खण्डन से अटे पड़े हैं। अकलङ्क, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज, अभयदेव, प्रभाचन्द्र, देवसूरि आदि आचार्यों के ग्रन्थ इसके प्रमाण हैं। आठवीं सदी के पूर्व भी सिद्धसेन, मल्लवादी, समन्तभद्र, सिंहसूरि, पात्रस्वामी आदि के ग्रन्थों में बौद्धन्याय का परीक्षण हुआ है । यही नहीं इन आचार्यों ने बौद्धाचार्यों से कुछ ग्रहण भी किया है। विचारणीय प्रश्न यह है कि जिस प्रकार जैन दार्शनिकों ने बौद्ध प्रमाणमीमांसा का खण्डन किया है,क्या उसी प्रकार का कार्य बौद्ध दार्शनिकों द्वारा भी सम्पन्न हुआ ? इस प्रश्न के समाधान का जब हम प्रयास करते हैं तो सर्वप्रथम धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक में अनेकान्तवाद के खण्डन पर दृष्टि जाती है। धर्मकीर्ति के पूर्व सिद्धसेन एवं समन्तभद्र ने अपनी दार्शनिक कृतियों में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद का प्रणयन किया था, अतः धर्मकीर्ति के द्वारा उसका खण्डन किया जाना स्वाभाविक था। धर्मकीर्ति दिगम्बर (अह्रीक) जैन दार्शनिकों के अनेकान्तवाद का खण्डन करते हुए कहते हैं कि सब पदार्थों को उभयात्मक (सामान्यविशेषात्मक) मानने से विशेष का निराकरण हो जायेगा फलतः समस्त अर्थ एक जैसे हो जायेगें और तब दही और ऊँट भी एक जैसे हुए तो फिर दही को खाने के लिए कहे जाने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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