________________
प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
समस्त प्रमाणों का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु को माना है ।२७६ दिइनाग ने अनुमान प्रमाण के स्वार्थ एवं परार्थ ये दो भेद किए थे,किन्तु सिद्धसेन ने इन दोनों भेदों को प्रत्यक्ष-प्रमाण में भी घटित किया
है। २७७
सिद्धसेन एवं मल्लवादी के अनन्तर सिंहसूरि भी एक उत्तमकोटि के जैन दार्शनिक थे, जिन्होंने मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र पर न्यायागमानुसारिणी टीका की रचना की । इन्होंने टीका में वसुबन्धु एवं दिइनाग का नामोल्लेख किया है । ७८ इस प्रकार जैनदार्शनिक सिद्धसेन के न्यायावतार, मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र तथा सिंहसूरि की टीका में दिइनाग आदि के प्रमाण चिन्तन का यत्र तत्र खण्डन हुआ है,तथापि विचारणीय प्रश्न यह है कि इनके उत्तरवर्ती बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के न्यायग्रंथों में जैनदार्शनिकों का स्पष्ट रूपेण उल्लेख करते हुए प्रमाणशास्त्रीय खण्डन क्यों नहीं किया गया? धर्मकीर्ति ने जैन दार्शनिकों के मात्र अनेकान्तवाद का खण्डन कर प्रमाणशास्त्रीय पक्षों की उपेक्षाक्यों की ? इसका एक मात्र समाधान यह प्रतीत होता है कि उस समय जैनदार्शनिकों के चिन्तन में अनेकान्तदृष्टि का प्राधान्य था। वही उनका सुरक्षा कवच था,अतः उसका खण्डन करना आवश्यक एवं पर्याप्त था ।धर्मकीर्ति के पश्चात् अर्चट की हेतुबिन्दुटीका में भी स्याद्वाद का विस्तार से खण्डन मिलता है । जैन दार्शनिक उमास्वाति के द्वारा प्रदत्त सत् के लक्षण उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' (तत्त्वार्थ सूत्र ५.२९) का भी अर्चट ने निरसन किया है। २७ हेतुबिन्दुटीका पर आलोक के रचयिता दुर्वेकमिश्र ने भी स्याद्वाद एवं अनेकान्तवाद की आलोचना की है तथा,नित्यानित्यात्मक पदार्थ में अर्थक्रिया मानने का खण्डन किया है ।२८०
धर्मकीर्ति एवं अर्चट के पश्चात ही जैन दर्शन में प्रमाणशास्त्रीय चिन्तन ने शनैः शनैःविकास किया अतः यही कारण है कि इनके अनन्तर शान्तरक्षित के ग्रंथों में जैन प्रमाण-मीमांसा की आलोचना
शान्तरक्षित ने अपने तत्वसडग्रह में जैनदार्शनिक मान्यताओं का पर्याप्त परीक्षण किया है। परीक्षित विषयों में आत्म-तत्त्व,प्रत्यक्ष-लक्षण,हेतुलक्षण,स्याद्वाद एवं बहिरर्थवाद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन दर्शन की मान्यता है कि आत्मा द्रव्यरूप से सब अवस्थाओं में वही रहता है तथा पर्यायरूप से बदलता रहता है । शान्तरक्षित ने इसका सविस्तार खण्डन किया है।८१ इसी प्रकार जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त स्याद्वाद का भी शान्तरक्षित ने परीक्षण किया है ।जैन दर्शन के अनुसार घटादि पदार्थ से पटादि पदार्थ सर्वथा व्यावृत्त (अतुल्य)नहीं है,यदि सर्वथा व्यावृत्त हो जाय तो उसे खपुष्प की भांति २७६. अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचर : सर्वसंविदाम् ।-न्यायावतार, २९ २७७. परार्थत्वं दूयोरपि ।-न्यायावतार,११ २७८. द्रष्टव्य, न्यायागमानुसारिणी, द्वादशारनयचक्र (ज.), भाग-१, पृ०६३,७२,९६,९९ आदि । २७९. द्रष्टव्य , यही अध्याय, पाद टिप्पण १०६-१०९ २८०. द्रष्टव्य ,यही अध्याय, पाद टिप्पण १२२-१२४ २८१. तत्त्वसंग्रह, कारिका ३११-३२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org