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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा मन्तव्यों का भी इसमें स्थापन किया गया है। प्रमाणनयतत्वालोक पर वादिदेवसूरि ने स्वयं बृहत्काय टीका स्याद्वादरत्नाकर की रचना की है, जो जैन दार्शनिक जगत् का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । ६० स्याद्वादरत्नाकर - वादिदेवसूरि का यह टीका ग्रंथ ८४००० श्लोक परिमाण आंका गया है। इसका प्रकाशन श्री मोतीलाल लाधा के संपादन में १९६, भवानी पेठ पूना से वीर संवत २४५३-५४ में हुआ था। अब १९८८ ई० में पुनर्मुद्रण भारतीय बुक कार्पोरेशन, दिल्ली ने किया है। इसमें वादिदेवसूरि ने जैनेतरदर्शनों के उन विषयों की भी आलोचना की है, जो प्रभाचन्द्र के द्वारा प्रमेयकमलमार्तण्ड में अछूते रह गये हैं। इसको जो नाम दिया गया है, वह वस्तुतः अन्वर्थ है । यह न्यायविषयक प्रतिपत्तियों को स्याद्वाद की दृष्टि से परखने वाला गंभीर समुद्र है। प्रमेयकमलमार्तण्ड की अपेक्षा स्याद्वादरत्नाकर की भाषा अधिक ललित एवं प्रसन्न है। विषय का प्रतिपादन भी अधिक व्यवस्थित है । धर्मकीर्ति के प्रमाण लक्षण 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्' एवं उस पर धर्मोत्तरटीका का वादिदेवसूरि ने सम्यक्तया परीक्षण किया है। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का खण्डन कर उसे सविकल्पक सिद्ध किया है। बौद्ध सम्मत प्रमाण द्वित्व को अपर्याप्त सिद्ध कर स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का भी देवसूरि ने प्रामाण्य प्रतिपादित किया है। वादिदेवसूरि प्रमाण- लक्षण को सांव्यावहारिक नहीं, पारमार्थिक मानते हैं । बौद्धों के अनुसार तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति अविनाभाव के कारण हैं, किन्तु देवसूरि ने इनका निरसन किया है । उन्होंने कारण हेतु, पूर्वचरहेतु, व्याप्य हेतु आदि हेतुओं का याथार्थ्य निरूपित किया है । यथाप्रसंग क्षणिकवाद, विज्ञानवाद, चित्राद्वैतवाद एवं शून्यवाद का भी खण्डन किया है। यह भी प्रतिपादित किया है कि क्षणिकवाद में अर्थक्रिया सम्भव नहीं है । स्याद्वादरत्नाकर का भी प्रस्तुत अध्ययन में महत्त्वपूर्ण योगदान है । प्रमाणनयतत्वालोक पर वादिदेवसूरि के शिष्य रत्नप्रभाचार्य ने एक लघुकाय टीका लिखी है, जिसका नाम रत्नाकरावतारिका है। विद्वज्जगत् में यह भी प्रसिद्धि को प्राप्त हुई । इस टीका के द्वारा स्याद्वादरत्नाकर का अवगाहन कुछ सरल हो जाता है । हेमचन्द्र और प्रमाणमीमांसा (१०८८ ई० से ११७३ ई०) कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र की लेखनी केवल जैन-साहित्य तक सीमित नहीं थी, उन्होंने काव्य, छन्द, व्याकरण, कोश आदि विविध विषयों पर भी लेखनी चलायी है। इनकी जैन न्याय विषयक एक ही रचना है - प्रमाणमीमांसा । यह यद्यपि पूरी उपलब्ध नहीं है, तथापि जितनी उपलब्ध है २६७ वही जैन न्याय साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है । हेमचन्द्र अपनी प्रतिभा का प्रमाणमीमांसा में पूरा उपयोग करते हैं । माणिक्यनन्दी के द्वारा प्रमाण- लक्षण में प्रयुक्त अपूर्व एवं स्व शब्द को ये अनावश्यक सिद्ध कर सम्यग् अर्थ निर्णय को प्रमाण कहते हैं २६८ जो उनकी सूझ का परिचायक है। २६७. उपलब्ध प्रमाणमीमांसा में दो अध्याय, तीन आह्निक एवं १०० सूत्र है जो स्वोपज्ञवृत्ति सहित हैं । २६८. सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् । प्रमाणमीमांसा, १.१.२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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