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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
वास्तव में यह प्रमेय रूपी कमलों को विकसित करने वाला मार्तण्ड है। टीकाग्रंथ होते हुए भी यह एक पृथक् मौलिक रचना प्रतीत होती है । यह टीका १२००० श्लोक परिमाण आंकी गयी है । इसमें विषयों की विविधता एवं भाषा की सरसता है । कारकसाकल्यवाद, सन्निकर्षवाद, इन्द्रियवृत्तिवाद, निर्विकल्पक प्रमाणवाद,शब्दाद्वैतवाद,शून्यवाद,चित्राद्वैत,साकारज्ञानवाद,ईश्वरवाद,अपौरुषेयत्ववाद आदि विविध दार्शनिक मन्तव्यों का पूर्वपक्ष-उपस्थापन के साथ खण्डन किया गया है। इसमें प्रमेय की भी चर्चा है तो प्रमाण की भी । प्रमाण ही प्रमेय-कमल के लिए मार्तण्ड है । प्रमाण के स्वरूप,भेद,विषय,फलादि की विप्रतिपत्तियों का इसमें सम्यक समाधान करने का प्रयास किया गया है । बौद्धों की प्रमाणमीमांसा के परीक्षण की दृष्टि से यह ग्रंथ अत्यन्त उपादेय है,क्योंकि इस ग्रंथ में बौद्ध न्याय के लगभग उन सब बिन्दुओं पर चर्चा की गयी है जिनसे जैनदार्शनिकों का मतभेद है। न्यायकुमुदचन्द्र-प्रसिद्ध जैन नैयायिक अकलङ्ककी कृति लघीयस्त्रय पर यह प्रभाचन्द्र की विशद एवं विस्तृत टीका है । यह न्यायकुमुद के लिए चन्द्रमा है । इसकी भाषा सुबोध एवं सरस है । अकलङ्क के ग्रंथों की समस्त टीकाओं में विषय की सहज अवगति के लिए न्यायकुमुदचन्द्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में जिन युक्तियों द्वारा परमत खण्डन में कुशलता प्राप्त की है,उन्हीं का प्रयोग न्यायकुमुदचन्द्र में भी देखने को मिलता है। दोनों ग्रंथों में विवेच्य विषय में अधिकतर साम्य है । मूलग्रंथों में भिन्नता के कारण कुत्रचित् विषय-भेद भी दृग्गोचर होता है । एक ही विषय पर कुछ भिन्न युक्तियों का भी प्रतिपादन है एवं कभी प्राचीन युक्तियों को ही भिन्न प्रकार से निरूपित किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रमेयकमलमार्तण्ड की भांति न्यायकुमुदचन्द्र का भी पूरा उपयोग हुआ
वादिदेवसूरि (१०८६ से ११६९ ई०)
जिस प्रकार दिगम्बराचार्य माणिक्यनन्दी ने संस्कृत-सूत्रों में न्यायग्रंथ परीक्षामुख की रचना की उसी प्रकार श्वेताम्बराचार्य वादिदेवसूरि२६६ ने प्रमाणनयतत्त्वालोक की रचना की। प्रमाणनयतत्त्वालोक एवं परीक्षामुख में अनेकत्र साम्य है । केवली कवलाहार,स्त्रीमुक्ति आदि कुछ प्रसंगों में अवश्य वह परीक्षामुख से भिन्न है । वादिदेवसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक पर विस्तृत टीका ग्रंथ स्याद्वादरत्नाकर का भी निर्माण किया है । इनका समय विक्रम सं० ११४६ से १२२६ अर्थात् १०८६ ई० से ११६९ ई० निर्धारित किया गया है । प्रमाणनयतत्त्वालोक-प्रमुख जैन तार्किक, वादिदेव अथवा देवसूरि की यह रचना माणिक्यनन्दी के परीक्षामुख का अनुसरण करती है, किन्तु इसमें परीक्षामुख से दो (सातवां एवं आठवां) परिच्छेद अधिक हैं जिनमें क्रमशः नय एवं वाद की चर्चा की गयी है। दिगम्बर मान्यता से भेद रखने वाले
२६६. इन्हें वादिदेव एवं देवसूरि के नाम से भी जाना जाता है ।
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