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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
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हेमचन्द्र के अनुसार गृहीतग्राही ज्ञान भी प्रमाण होता है। वे ग्रहीष्यमाण ज्ञान की भांति गृहीतग्राही ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं ।२६९ अन्य जैनाचार्य और उनकी कृतियां ___ अकलङ्कोत्तर युग में जिनेश्वरसूरि (दसवीं ग्यारहवीं शती) का प्रमालक्ष्म, चन्द्रसेनसूरि (ग्यारहवीं बारहवीं शती) रचित उत्पादादिसिद्धि, अभिनवधर्मभूषण (१४ वीं १५ वीं शती)विरचित न्यायदीपिका का भी प्रमाणमीमांसा के प्रतिपादन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रमालक्ष्म एवं न्यायदीपिका में प्रमाण का सर्वाङ्ग विवेचन है। उत्पादादिसिद्धि में बौद्ध दर्शन सम्मत अपोहवाद,सन्तानवाद आदि का निरसन हुआ है तथा प्रत्यभिज्ञान व आगम का प्रामाण्य प्रतिष्ठित किया गया है । हरिभद्रसूरि के षड्दर्शनसमुच्चय पर गुणरत्नसूरि (१३४३-१४१८ई०) की टीका तथा हेमचन्द्रसूरि के अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका पर मल्लिषेणसूरि (ई. १२९३) की टीका स्याद्वादमञ्जरी में भी प्रमाण मीमांसा की चर्चा हुई है ।सप्तभङ्गीनय का विमलदास की सप्तपङ्गीतरंगिणी में विस्तृत प्रतिपादन है । इस प्रकार जैन न्याय में निरन्तर नई नई रचनाएं होती रही हैं । किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा के पश्चाद्वर्ती रचनाओं का उपयोग नहीं किया गया है, क्योंकि भारत में बौद्ध प्रमाणशास्त्र का विकास हेमचन्द्र के पश्चात् होता दिखाई नहीं देता। नव्यन्याय युग
जैन दर्शन में न्याय-वैशेषिकों का अनुकरण कर नव्य-न्याय शैली में भी प्रमाण -शास्त्रों का निरूपण हुआ है,जिनमें आचार्य यशोविजय की रचनाएं प्रमुख हैं । आचार्य यशोविजय सत्रहवीं शती के महान जैन दार्शनिक थे जिनकी सौ से ऊपर रचनाएं हैं। जैन न्याय से सम्बद्ध उनकी रचनाओं में प्रमुख हैं . १. जैनतर्कभाषा २. ज्ञानबिन्दु ३. अष्टसहस्त्रीतात्पर्यविवरण और ४. शाखवार्तासमुच्चयटीका । इन समस्त रचनाओं पर नव्यन्याय शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है। अठारहवीं शती में नरेन्द्रसेन ने प्रमाणप्रमेयकलिका की रचना की,किन्तु वह नव्य न्यायशैली में नहीं
है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन नव्य -न्याय का उपयोग नहीं किया गया है । आठवीं से बारहवीं शती के मध्य अकला एवं उनके अनन्तरवर्ती जैन प्रमाणशास्त्र ही प्रस्तुत अध्ययन का प्रमुख आधार बना है । दिगम्बर - श्वेताम्बर सम्प्रदाय७०
प्रमाणमीमांसा की जैन परम्परा में जिन प्रमुख जैन दार्शनिकों का परिचय दिया गया है उनमें उमास्वाति को छोड़कर समस्त जैन नैयायिकों को दिगम्बर एवं श्वेताम्बर इन दो सम्प्रदायों में रखा २६९ ग्रहीष्यमाणाग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम् ।-प्रमाणमीमांसा १.१.४ २७०. श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि दिगम्बर सम्प्रदाय महावीर के निर्वाण के ६०९ वर्ष पश्चात् अर्थात्
८२ ई० में उदित हुआ एवं दिगम्बर स्रोतों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का उदय विक्रम संवत् १३६ अर्थात् ७९ ई० में बतलाया जाता है।- AHistory of Indian Logic,p.159
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