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________________ ५४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणम्' कारिका २४६ के अन्तर्गत विद्यानन्द ने प्रमाण के स्वरूप पर विस्तृत विचार किया है तथा बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष एवं अनुमान का खण्डन किया है। ___ अकलङ्क के अनन्तर जैन न्याय के व्यवस्थित स्थापन एवं जैनेतर दार्शनिकों का खण्डन करने में विद्यानन्द ने महती भूमिका निभायी है, इसमें कोई संदेह नहीं है । विद्यानन्द का अनुसरण उत्तरवर्ती जैन नैयायिक अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि आदि करते हैं। अनन्तवीर्य (९५०-९९०ई०) जैनदर्शन में अनन्तवीर्य नामक चार आचार्यों का उल्लेख मिलता है, जिनमें एक अनन्तवीर्य का उल्लेख अकलङ्कतत्त्वार्थवार्तिक में करते हैं४७ द्वितीय अनन्तवीर्य का उल्लेख सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्य करते हैं । २१८ तृतीय अनन्तवीर्य सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार स्वयं है तथा चतुर्थ अनन्तवीर्य प्रमेयरत्नमाला के रचयिता हैं । इनमें तृतीय अनन्तवीर्य ही अकलङ्क के टीकाकार हैं। इनका समय ९५० से ९९० ई. के मध्य निर्धारित किया गया है ।२४९ प्रमाणसङ्ग्रहभाष्य और सिद्धिविनिश्चय टीका-अनन्तवीर्य ने अकलङ्क के दो ग्रंथों सिद्धिविनिश्चय एवं प्रमाणसंग्रह पर व्याख्या लिखी है । प्रमाणसंग्रह पर भाष्य लिखने का अनुमान उनके सिद्धिविनिश्चय टीका में प्रदत्त उल्लेखों से होता है । २५° यह भाष्य अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है । सिद्धिविनिश्चय टीका उपलब्ध है । यह १८००० श्लोक परिमाण विस्तृत एवं विशद है । यद्यपि अनन्तवीर्य, अनन्तवीर्य होकर भी अकलङ्क के गूढ अर्थों को समझने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं । फिर भी वे वादिराज एवं प्रभाचन्द्र के पथप्रदर्शक बने हैं। अनन्तवीर्य ने ग्रन्थ का एक तिहाई भाग बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति एवं उनके टीकाकारों के खण्डन में ही समर्पित कर दिया है । वे अपनी तार्किक युक्तियों के साथ अनेक लोकोक्तियों,मुहावरों एवं न्यायों का भी प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं। उनकी यह टीका बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट, प्रज्ञाकरगुप्त, शान्तरक्षित, कमलशील आदि के मन्तव्यों का उल्लेख कर उनका निरसन करती है, किन्तु इस टीका में उतना सौष्ठव नहीं आ पाया है,जितना विद्यानन्द या प्रभाचन्द्र की टीकाओं में दिखाई देता है । दूसरी बात यह भी है कि इसकी एक मात्र पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई वह अनेक स्थलों पर खण्डित है जिस कारण से सही अर्थ निर्धारित करने में कठिनाई रही है। माणिक्यनन्दी और परीक्षामुख (९९३-१०५३ ई०) माणिक्यनन्दी प्रथम जैन दार्शनिक हैं, जिन्होंने अकलङ्क के ग्रंथों के आधार पर जैन न्याय का २४६. आप्तमीमांसा, १०१ २४७. अनन्तवीर्ययतिना चेन्द्रवीर्यस्य प्रतिघातश्रुतेः सप्रतिघातसामर्थ्य वैक्रियिकम् । तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० १५४.१२ २४८. तस्मात् “उक्तार्थोऽनन्तरश्लोकोऽयम्" इत्यनन्तवीर्यः।-सिद्धिविनिश्चयटीका, १०३१ २४९. सिद्धिविनिश्चयटीका, प्रस्तावना, पृ०७५-८९ २५०. द्रष्टव्य, यही अध्याय का पादटिप्पण, २३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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