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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
प्रमाणशास्त्रीय कृति है । यह विद्यानन्द की अतिलघु रचना है,जिसका प्रकाशन सनातन जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी से हुआ है। प्रमाणपरीक्षा-विद्यानन्द की यह कृति पूर्णतःप्रमाणचर्चा से सम्बद्ध है । इसमें विद्यानन्द ने जैनेतर दार्शनिकों के द्वारा मान्य प्रमाण-स्वरूप,प्रमाण-संख्या,प्रमाण-विषय एवं प्रमाण-फल का युक्तिपूर्वक परीक्षण कर जैन दृष्टि से उनकी वास्तविक स्थिति को प्रकाशित किया है। विद्यानन्द ने इस ग्रंथ में सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण कह कर २४३ अन्य मतावलम्बियों के प्रमाणविषयक दोषों का उद्भावन किया है । निर्विकल्पक प्रत्यक्ष एवं हेतु के त्रैरूप्य व पांचरूप्य का भी विद्यानन्द ने इसमें प्रबल खण्डन किया है तथा स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को पृथक् प्रमाण सिद्ध किया है । विद्यानन्द की यह संक्षिप्त कृति प्रमाण साग्द्ध समस्त चर्चा को अपने में समेटे हुए है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -यह उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र पर विद्यानन्द का अनुपमवार्तिक है। अकलङ्क कृत तत्वार्थवार्तिक उद्योतकर के न्यायवार्तिक का अनुसरण करता है तो विद्यानन्द का श्लोकवार्तिक धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक एवं कुमारिल के मीमांसाश्लोकवार्तिक की सरणि का अनुकरण करता है। यह पूर्णरूप से पद्यात्मक है,तथा स्वयं विद्यानन्द ने उस पर गद्यात्मक भाष्य भी लिखा है । यह ग्रंथ जैन सिद्धान्त एवं उसके दार्शनिक मन्तव्यों को प्रतिष्ठित करता हुआ जैनेतर मान्यताओं का निरसन करता है । यह जैनदर्शन के प्राणभूत ग्रंथों में प्रथम कोटि का ग्रंथ समझा जाता है। प्रथम अध्याय में प्रमाण विषयक सूत्रों की व्याख्या करते हुए विद्यानन्द ने बौद्ध आदि मन्तव्यों का खण्डन कर जैन दर्शनानुसार प्रमाण-लक्षण , प्रमाण-भेद,प्रत्यक्ष, अनुमान,स्मृति,प्रत्यभिज्ञान, तर्क, हेतु, अनुमानावयव आदि का स्थापन किया है । जैन -प्रमाण के स्थापन एवं बौद्ध -प्रमाण के खण्डन के लिए यह ग्रंथ नितान्त महत्त्वपूर्ण है। अष्टसहस्त्री - यह समन्तभद्र विरचित आप्तमीमांसा (देवागमस्तोत्र) पर विशाल टीका है, जिसमें अकलङ्कीय टीका अष्टशती को इस प्रकार से आत्मसात् कर लिया गया है कि अष्टशती को अष्टसहस्त्री से पृथक् कर पाना दुष्कर कार्य है । अष्टसहस्री में समन्तभद्र के मन्तव्यों को व्यापक विचारपटल पर प्रकाशित किया गया है । अकलङ्कीय अष्टशती कुछ दुरूह एवं दुरवगम्य थी,जिसे अष्टसहस्त्री ने सरल बनाकर उसका हार्द प्रकट करने का प्रयास किया है । स्वयं विद्यानन्द इसको कष्टसहस्री कहते हैं २४४ तथा अन्य हजारों शास्त्र सुनने की अपेक्षा इसके श्रवण को ही पर्याप्त समझते हैं । २४५ विद्यानन्द ने
अपने इस ग्रंथ में कुमारिलभट्ट, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकरगुप्त आदि के मंतव्यों का युक्तिपुरस्सर खण्डन किया है। जयराशि के तत्वोप्लववाद का भी इसमें खण्डन किया गया है। समन्तभद्र द्वारा प्रस्तुत
२४३. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, १२८ २४४. कष्टसहस्री सिद्धा साऽष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात् ।-अष्टसहस्री, प्रशस्तिपद्य । २४५. श्रोतव्यऽष्टसहस्त्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्याने ।
विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भाव: ।-अष्टसहस्री, पृ० १५७
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