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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन- परम्परा
प्रमाणसङ्ग्रह की रचना न्यायविनिश्चय के अनन्तर हुई थी यह निश्चित है, क्योंकि न्यायविनिश्चय की अनेक कारिकाएं बिना किसी उपक्रम वाक्य के प्रमाणसंग्रह में रख दी गयी हैं। अकलङ्क ने अन्य रचनाओं के पश्चात् अवशिष्ट प्रमाण-विषयक विचारों का इस ग्रंथ में संग्रह कर दिया है, अत: यह गहन एवं दुरुह बन गया है। इसमें ९ प्रस्ताव तथा ८७- १/२ कारिकाएं हैं। स्वयं अकलङ्क ने इन कारिकाओं पर पूरक विवृति की रचना की है ।
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प्रमाणसङ्ग्रह की विषय-वस्तु लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय एवं सिद्धिविनिश्चय की विषयवस्तु का समाहार करती है । इसमें भी अन्य ग्रंथों की भांति प्रत्यक्ष का लक्षण, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क की प्रमाणता निरूपित की गयी है । त्रिरूपता का खण्डन कर अन्यथानुपपत्ति रूप हेतुलक्षण का समर्थन किया गया है । प्रमाणसंग्रह में कुछ विषय सर्वथा नवीन हैं, यथा अनुमान के अवयवों का विधान तथा हेतु के उपलब्धि, अनुपलब्धि आदि अनेक भेदों का विस्तृत विवेचन । प्रमाणसंग्रह में शून्यवाद, संवृतिवाद, विज्ञानवाद, अपोहवाद, मिध्यासन्तान, निर्विकल्पकप्रत्यक्ष तथा परमाणुसंचय को प्रत्यक्ष का विषय मानने वाले बौद्धों को जड़ कहा गया है। २३६
प्रमाणसङ्ग्रह पर अनन्तवीर्य कृत प्रमाणसङ्ग्रह भाष्य अथवा प्रमाणसङ्ग्रहालङ्कार नामक टीका रही है, ऐसा अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका में स्वयं उल्लेख किया हैं, २३७ किन्तु यह भाष्य सम्प्र अनुपलब्ध है ।
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अकलङ्क द्वारा व्यवस्थित स्वरूप दिए जाने के कारण जैन न्याय को अकलङ्कन्याय के नाम से भी जाना जाता है। अकलङ्क की न्यायविषयक रचनाओं के चार प्रमुख टीकाकार हैं- विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज एवं प्रभाचन्द्र । विद्यानन्द ने अकलङ्कीय अष्टशती पर अष्टसहस्त्री टीका की रचना की है। अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय पर वादिराज ने न्यायविनिश्चय पर एवं प्रभाचन्द्र ने लघीयस्त्रय पर टीकाओं का निर्माण किया है, जिनका परिचय यथाक्रम आगे दिया जा रहा है।
विद्यानन्द (७७५ से ८४० ई.)
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अकलङ्क के टीकाकारों में विद्यानन्द प्रथम हैं। विद्यानन्द को जैन एवं जैनेतर दर्शनों का अच्छा अभ्यास था । दरबारी लाल कोठिया इनका समय ७७५ ई. से ८४० ई. के मध्य सिद्ध करते हैं, २३९ जो समीचीन प्रतीत होता है। आचार्य विद्यानन्द की छह स्वतन्त्र रचनाएं तथा तीन टीका ग्रंथ हैं। स्वतंत्र रचनाएं हैं- १. विद्यानन्दमहोदय, २. आप्तपरीक्षा ३. प्रमाणपरीक्षा ४. पत्रपरीक्षा ५.
२३६. शून्यसंवृतिविज्ञानकथानिष्फलदर्शनम् ।
संचयापोहसन्ताना: सप्तैते जाड्यहेतवः ॥
प्रमाणसंग्रह, ६.५७-५८
२३७. (१) इति चर्चितं प्रमाणसंग्रहभाष्ये । - सिद्धिविनिश्चयटीका, प्रथम भाग, पृ० ८ (२) इत्युक्तं प्रमाणसंग्रहालङ्कारे-सिद्धिविनिश्चयटीका, प्रथम भाग, पृ० १०
(३) शेषमत्र प्रमाणसंग्रह भाष्यात् प्रत्येयम् ।- सिद्धिविनिश्चयटीका, प्रथम भाग, पृ० १३० २३८. इनको विद्यानन्दी नाम से भी जाना जाता है ।
२३९. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, पृ० ४७-५३
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