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________________ ५० बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा संकेत करने के साथ इसमें असिद्धादि हेत्वाभासों का भी वर्णन प्रतिपादित है । जाति, निग्रह, वाद आदि की भी चर्चा की गयी है। प्रवचन प्रस्ताव में आप्त के सर्वज्ञ होने की सिद्धि की गयी है तथा सुगत के आप्तत्व एवं करुणावत्व का निरसन किया गया है । इसमें वेद के अपौरुषेयत्व,शब्दनित्यत्व आदि का भी खण्डन हुआ है तथा सप्तभंगी एवं स्याद्वाद का सम्यक् निरूपण हुआ है। इस प्रस्ताव में स्मरण,प्रत्यभिज्ञान आदि का प्रामाण्य निरूपित है तथा प्रमाण के फल की भी चर्चा की गयी है ।२३४ इस दृष्टि से न्यायविनिश्चय न्याय की विशिष्ट कृति है जो जैनदृष्टि से जैनेतरदर्शनों की सम्यक्रूपेण परीक्षा करती है । न्यायविनिश्चय परवादिराज की टीका है जिसे न्यायविनिश्चयविवरण कहा गया है। सिद्धिविनिश्चय -इसमें सिद्धि को ही प्रमाण बतलाकर उसी दृष्टि से सम्पूर्णग्रन्थ की रचना कर दी गयी है । सिद्धिविनिश्चय में १२ प्रस्ताव हैं । ग्रंथ की विषयवस्तु का अनुमान प्रस्तावों के नामों से हो जाता है, यथा १. प्रत्यक्ष सिद्धि २. सविकल्पसिद्धि ३. प्रमाणान्तर सिद्धि (स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क)४.जीवसिद्धि ५.जल्पसिद्धि ६.हेतुलक्षणसिद्धि ७.शास्त्रसिद्धि ८.सर्वज्ञ सिद्धि ९.शब्दसिद्धि १०. अर्थनय सिद्धि ११.शब्दनय सिद्धि और १२.निक्षेप सिद्धि । __इन १२ प्रस्तावों की विषय सामग्री को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- (१) प्रमाणमीमांसा (२) प्रमेय मीमांसा (३) नय मीमांसा और (४) निक्षेप मीमांसा । प्रस्तुत ग्रन्थ में बौद्ध न्याय के निरसन से सम्बद्ध विषयों पर ही विचार अपेक्षित है । उस क्रम में अकलङ्कने बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का खण्डन कर व्यवसायात्मक प्रत्यक्ष की प्रमाणता और विशदता का स्थापन किया है, विज्ञानाद्वैत का खण्डन कर बाह्यार्थ की सिद्धि की है तथा अविसंवाद की बहुलता से प्रामाण्य का निर्धारण किया है । अकलङ्क कहते हैं कोई भी ज्ञान सर्वथा प्रमाण या अप्रमाण नहीं होता, अविसंवाद की बहुलता से वह प्रमाण तथा विसंवाद की बहुलता से अप्रमाण होता है । २३५ वे क्षणिकवाद में अर्थक्रिया का अभाव बतलाकर बौद्ध प्रमाण-स्वरूप का खण्डन करते हैं। ___अकलङ्क का कहना है कि तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति से अविनाभाव की व्याप्ति संभव नहीं है। अन्यथ उपपत्ति को ही वे हेतु का लक्षण सिद्ध करते हैं । स्वलक्षण के अवाच्यत्व का भी सिद्धिविनिश्चय में खण्डन किया गया है । सिद्धिविनिश्चय पर अनन्तवीर्य ने टीका लिखी है जिसका उल्लेख आगे सिद्धिविनिश्चयटीका नाम से किया गया है। प्रमाणसअह-यह अकलङ्क की अंतिम कृति है, ऐसा इसकी प्रौढ शैली से ज्ञात होता है। २३४. प्रमाणस्य फलं तत्त्वनिर्णयादानहानधीः । निःश्रेयसं परं वेति केवलस्याप्युपेक्षणम् ॥-न्यायविनिश्चय, ४७६ २३५. यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ।-सिद्धिविनिश्चिय,१.१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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