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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
ज्ञान में ऐकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणता का निषेध करके अकलङ्कने प्रमाणाभास का स्वरूप निर्धारित किया है। अविसंवाद और विसंवाद के आधार पर प्रमाण तथा प्रमाणाभास की व्यवस्था की है तथा श्रुत की प्रमाणता एवं शब्दों की अर्थवाचकता आदि पर विचार किया है।
नय प्रवेश में नय एवं दुर्नय के लक्षण,नयों के द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक भेद तथा नैगमादिनयों में अर्थनय व शब्दनय के प्रयोग आदि पर विचार हुआ है । यह कहा जा सकता है इस प्रवेश में सम्पूर्ण नय-परिवार का विवेचन है।
प्रवचन प्रवेश में प्रमाण और नय का पुनः भिन्न परिप्रेक्ष्य में विचार करने के अतिरिक्त निक्षेप का भी वर्णन हुआ है । कुछ अन्य विषयों यथा अर्थ एवं आलोक की ज्ञानकारणता का खण्डन,तज्जन्य, ताद्रूप्य और तदध्यवसाय का प्रामाण्य में अप्रयोजकत्व, सकलादेश एवं विकलादेश आदि पर भी चर्चा की गयी है।
लघीयस्त्रय पर प्रभाचन्द्र ने विशाल टीका का निर्माण किया है जिसे लघीयस्त्रयालङ्कार अथवा न्यायकुमुदचन्द्र कहा जाता है । इसका परिचय प्रभाचन्द्र के प्रसंग में न्यायकुमुदचन्द्र नाम से आगे दिया गया है। न्यायविनिश्चय -न्यायविनिश्चय नाम सिद्धसेन के न्यायावतार के न्याय तथा धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय के विनिश्चय का मेल प्रतीत होता है ।न्यायविनिश्चय का प्रकाशन सर्वप्रथम 'अकलग्रंथत्रयम्' में १९३९ ई. में हुआ। तदनन्तर वादिराज के विवरण के साथ इसका प्रकाशन दो भागों में भारतीय ज्ञानपीठ,काशी द्वारा क्रमशः सन् १९४९ व १९५४ ई. में किया गया। अकलङ्क ने न्यायविनिश्चय पर भी लघीयस्त्रय की भाँति विवृति की रचना की है, किन्तु वह उपलब्ध नहीं है। न्यायविनिश्चय के मूलपाठ का उद्धार वादिराज के विवरण से किया गया है, जिसमें वे केवल श्लोकों की ही व्याख्या करते हैं,विवृति की नहीं,अतः विवृति अभी उपलब्ध नहीं हो सकी है। न्यायविनिश्चय में तीन प्रस्ताव हैं,प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन ।
प्रत्यक्ष प्रस्ताव में स्पष्ट एवं साकार ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है। अकलङ्क इसमें इन्द्रिय प्रत्यक्ष को भी परिभाषित करते हैं, तथा ज्ञान को स्वसंवेदी सिद्ध करते हैं। ज्ञानान्तरवेद्यज्ञान,साकारज्ञान, संवेदनाद्वैत आदि का उन्होंने खण्डन किया है। अकलङ्कने सांख्य,न्याय आदि के प्रत्यक्षलक्षण का निरसन करने के साथ बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के प्रत्यक्षलक्षण की भी आलोचना की है।
अनुमान प्रस्ताव अनुमान विषयक चर्चा से सम्बद्ध है । इसमें अकलङ्क ने साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा है। साध्य को शक्य,अभिप्रेत एवं अप्रसिद्ध कहा है तथा उससे भिन्न साध्य को साध्याभास कहा है । उन्होंने हेतु की त्रिरूपता का खण्डन कर अन्यथानुपपत्ति का समर्थन किया है, तथा तर्क का पृथक् प्रामाण्य सिद्ध किया है। अनुपलम्भ,पूर्वचर,उत्तरचर और सहचर हेतु का
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