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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
को विस्तार से उपस्थापित कर उसका निरसन किया है ।२२३ पात्रस्वामी की अन्य रचना का सम्प्रति कोई उल्लेख नहीं मिला है। इनका भी समय सातवीं शती के उत्तरार्द्ध एवं आठवीं शती के पूर्वार्द्ध में अकलङ्क के पूर्व रहा होगा। क्योंकि अकलङ्क इनके प्रसिद्ध श्लोक ‘अन्यथानुपपन्नत्वं' को उद्धृत करते हैं। श्रीदत्त श्रीदत्त नामक आचार्य का उल्लेख अकलङ्क के तत्वार्थवार्तिक २२४ एवं विद्यानन्द के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में मिलता है। विद्यानन्द ने श्रीदत्त को ६३ वादियों का जेता बतलाते हुए उनके जल्पनिर्णय नामक ग्रंथ का निर्देश किया है। २२५ यह ग्रंथ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। कुमारनन्दी (आठवीं शती) ___विद्यानन्द की कृतियों में कुमारनन्दी का अनेक बार उल्लेख हुआ है । कुमारनन्दी विद्यानन्द से पूर्व एवं अकलङ्क के पश्चात् हुए,ऐसा अनुमान लगाया जाता है । इनकी एक प्रसिद्ध कृति वादन्याय है जो सम्प्रति अनुपलब्ध है। विद्यानन्द ने प्रमाणपरीक्षा में कुमारनन्दी का एक श्लोक उद्धृत किया है२२६ जो उनके न्यायविषयक पाण्डित्य का पर्याप्त निदर्शन है । हरिभद्रसूरि (७००-७७० ई०) __आठवीं सदी में याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्र ने अनेकविध ग्रंथों की रचना कर ख्याति अर्जित की । वे भारतीय दर्शन के प्रकाण्डज्ञाता थे। षड्दर्शनसमुच्चय नामक उनकी दार्शनिक कृति इसका निदर्शन है। हरिभद्रसूरि ने प्रमाणशास्त्रीय ग्रंथ निर्माण की ओर कम ध्यान दिया, तथापि अनेकान्त सिद्धान्त के स्थापनार्थ रचित उनकी कृति अनेकान्तजयपताका प्रमाणशास्त्रीय विषयों का भी यथाप्रसंग प्रतिपादन करती है। हरिभद्रसूरि की अन्य दार्शनिक रचना शास्त्रवार्तासमुच्चय है जो अनेकदृष्टियों से उल्लेखनीय है । हरिभद्रसरि ने बौद्ध प्रमाण-शास्त्रों पर भी टीकाएँ एवं व्याख्याएँ लिखी हैं,इसका निदर्शन शंकरस्वामी के न्यायप्रवेश परलिखी गयी पञ्जिका है । किन्तु यह हरिभद्रसूरि इनसे भिन्न है या वही है ,यह निश्चित नहीं कहा जा सकता है । हरिभद्रसूरि के काल के सम्बन्ध में विशेष विवाद नहीं रहा । ई० ७०० से ७७० तक उनकी विद्यमानता मानी जाती है ।२२७ अकलङ्क एवं तदुत्तरवर्ती प्रमाणमीमांसा (८वीं से १२ वीं शती)
अकलङ्क के पूर्व जैनन्याय विषयक रचनाएं अत्यल्प थीं,स्तुत्यात्मक एवं अनेकान्तवाद की २२३. तत्त्वसङ्ग्रह, १३५३-१४२८ २२४. श्रीदत्तमिति, सिद्धसेनमिति–तत्त्वार्थवार्तिक, १.१३.१ २२५. द्विप्रकारं जगी जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम्।।
विषष्टेर्वादिना जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ।।- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, निर्णयसागर, बम्बई, पृ. २८० २२६. तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दि भट्टारकै:
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणलिङ्गमंग्यते ।प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधत: |- प्रमाणपरीक्षा, पृ० ४९ २२७. हरिभद्रसूरि के सन्दर्भ में विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य, पं० सुखलाल संघवी, समदर्शी आचार्य हरिभद्र, राजस्थान
प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर सन् १९६३
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