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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
समीचीन प्रतीत होता है । मुनि जम्बूविजय जी देवर्धिगणिक्षमाश्रमण (विक्रमसंवत् ५१०) से सिंहसूरि को प्राचीन मानते हैं। २१७
सिंहसूरि अपनी टीका में वसुबन्धु दिइनागादि दार्शनिकों के मन्तव्यों को पूर्व पक्ष में रखकर उनका खण्डन करते हैं । सिंहसूरि ने बौद्ध प्रमाणलक्षण में प्रत्यक्ष का विभिन्न दृष्टिकोणों से परीक्षण किया है। सुमति (सातवीं आठवीं शती) ___सुमति नामक महान् जैनदार्शनिक की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दार्शनिक जगत् में धाक थी। यद्यपि सुमति नामक आचार्य की कोई कृति उपलब्ध नहीं है, किन्तु बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित तत्वसङ्ग्रह में अनेक बार सुमति नामक आचार्य के मत को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित करते हैं। २१८ इससे सुमति नामक दिगम्बर जैनाचार्य के महत्त्व एवं काल का अनुमान हो जाता है । शान्तरक्षित का समय ७०५ से ७६४ ई. माना गया है,सुमति उनसे पूर्व या उसी समय विद्यमान रहे होंगे। कमलशील तत्त्वसंग्रहपञ्जिका में सुमति का नामोल्लेख करके ही उनके मत की व्याख्या करते हैं,२१९ इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कमलशील के काल में सुमति का मत प्रचलन में अथवा प्रभाव में रहा था। सुमति एक ऐसे दिगम्बर जैनाचार्य हैं जिन्होने श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर विवृति लिखी थी।२२° वह विवृति अभी अनुपलब्ध है। पात्रस्वामी (सातवीं आठवीं शती) ___ सुमति की भाँति पात्रस्वामी अथवा पात्रकेसरी भी प्रसिद्ध जैन नैयायिक रहे हैं। इनकी प्रसिद्ध रचना है त्रिलक्षणकदर्थन । इसमें पात्रस्वामी की एक मौलिक देन है- हेतु के अविनाभावी लक्षण द्वारा बौद्धों के त्रिरूपहेतु (पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व) का खण्डन। अकलङ्क एवं अकलङ्कोत्तराचार्य इनके त्रिलक्षणकदर्थन के एक श्लोक को यत्र तत्र उद्धृत करते हुए देखे जाते हैं । २२१ वह श्लोक है
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नानन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ इस श्लोक में बौद्धों के हेतु त्रैरूप्य का खण्डन कर उसे अनावश्यक सिद्ध किया गया है। बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने भी इसे तत्त्वसङ्ग्रह में उद्धृत किया है । २२२ शान्तरक्षित ने पात्रस्वामी के मत २१७. द्रष्टव्य, द्वादशारनयचक्र, (ज) प्राक्कथन, पृ० ३१ २१८. द्रष्टव्य, तत्वसंग्रह, कारिका १२६४,१२७५, १२७६, १७२३-२४, १७५४ आदि । २१९. यथा, तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, पृ० ४६३ कारिका १२६४ की व्याख्या में, नन्वित्यादिना प्रथमे हेतौ सुमतेर्दिगम्बरस्य
मतेनासिद्धतामाशङ्कते।' २२०. पं. कैलाशचन्द्र, जैन न्याय, पृ० २५
२२१. यथा, न्यायविनिश्चय,१५४-५५.प्रमाणपरीक्षा, प०४९,स्याद्वादरत्नाकर,१०५२१, प्रमाणमीमांसा, पृ०४० २२२. तत्त्वसङ्ग्रह, १३६८
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