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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
अनेकान्तवाद में किस प्रकार सामञ्जस्य होता है यह दिखाना नयचक्रकार का उद्देश्य है । द्वादशारनयचक्र में नय को बारह अरों के रूप में प्रस्तुत कर तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं का बलपूर्वक खण्डन किया गया है, तथा अनेकान्तवाद की स्थापना की गयी है। द्वादशारनयचक्र का प्रस्तुत अध्ययन में इसलिए अधिक महत्त्व है, क्योंकि इसमें दिङ्नाग सम्मत प्रमाण का खण्डन प्राप्त होता है ।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (षष्ठ- सप्तम शती)
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण प्रसिद्ध भाष्यकार हैं । इन्होंने आवश्यकसूत्र पर प्राकृतभाषा में विशेषावश्यक भाष्य की रचना की थी जिसमें विविध आगमिक एवं दार्शनिक विषयों के साथ ज्ञान पर भी चर्चा हुई है। भाष्य का अधिकांश मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि पांच ज्ञानों की चर्चा में रुका हुआ है । प्रमाण मीमांसा के परिप्रेक्ष्य में ज्ञान की चर्चा का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि जैनदर्शन में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने भाष्य में मतिज्ञान के भेदों का विवेचन करते हुए अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा के स्वरूप पर विशद प्रकाश डाला है। २१३ उन्होंने ही जैन दार्शनिकों में सर्वप्रथम इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप में प्रतिपादित किया । २१४ यद्यपि जिनभद्र का प्रतिपाद्य प्रमाण नहीं रहा तथापि उनका यह भाष्य ज्ञानमीमांसा का विवेचन करने के कारण प्रमाणशास्त्र का अंग बन गया है।
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विशेषावश्यक भाष्य पर जिनभद्र की स्वोपज्ञवृत्ति अपूर्ण रह गयी थी जिसे कोट्याचार्य ने पूर्ण किया था तथा मलधारी हेमचन्द्र ने इस भाष्य पर वृत्ति का निर्माण किया है जो भाष्य के हार्द को समझने के लिए अत्यन्त उपादेय है। जिनभद्र का काल शक संवत् ५३१ ई० से पूर्व अर्थात् ईसवीय छठी सातवीं शती स्वीकार किया गया है। २१५ ये श्वेताम्बर जैनाचार्य थे ।
सिंहसूरि (सप्तमशती का पूर्वार्द्ध)
मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र पर सिंहसूरि की न्यायागमानुसारिणी टीका दार्शनिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इस टीका में सिंहसूरि सिद्धसेन के सन्मतितर्क एवं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाव्य से भी उपयोगी अंश उद्धृत करते हैं, किन्तु धर्मकीर्ति की रचनाओं का इन पर कोई प्रभाव नहीं है । अतः वे सिद्धसेन (पांचवीं शती) एवं जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण (षष्ठ शती) के पश्चात् हुए हैं तथा धर्मकीर्ति के पूर्व ऐसा अनुमान होता है। चतुरविजयजी एवं विजय लब्धिसूरीश्वर जी ने नयचक्र की प्रस्तावना में सिंहसूरि को सप्तम शताब्दी के प्रारम्भिक काल में रखा है, ' जो
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२१३. द्रष्टव्य, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १७८ से ४०५
२१४. इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं । - विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ९५
२१५. विशेषावश्यक भाष्य की रचना शक संवत् ५१३ तक हो गई थी, ऐसा जैसलमेर ज्ञान भण्डार के विशेषावश्यक भाष्य के ताडपत्र की अंतिम दो गाथाओं में दी गई तिथि से ज्ञात होता है ।- द्वादशारनयचक्र (ज) भाग-१, प्रस्तावना पृ०
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२१६. द्रष्टव्य, द्वादशारनयचक्र, (चतुरविजयजी द्वारा संपादित तथा विजयलब्धिसूरीश्वरजी द्वारा संपादित) भाग-१ की प्रस्तावना
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