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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन - परम्परा
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द्वादशारनयचक्र में वसुबन्धु एवं दिनाग सम्मत दार्शनिक एवं प्रमाण सम्बद्ध मान्यताओं को उद्धृत कर उनका खण्डन करते हैं, किन्तु धर्मकीर्ति द्वारा प्रतिपादित मान्यताओं का इनकी रचना में कहीं भी संकेत नहीं मिलता है। अतः इनका समय दिङ्नाग (४७०-५३० ई०) के पश्चात् एवं धर्मकीर्ति (६२०-६८० ई० ) के पूर्व होना चाहिए। मल्लवादी के सम्बन्ध में अनेक प्रशस्तियां मिलती हैं, जो इनको बौद्धों पर विजय प्राप्त करने वाला सिद्ध करती हैं। एक प्रशस्ति के अनुसार इन्होंने बुद्धानन्द नामक बौद्ध दार्शनिक को पराजित किया था । २०९ हेमचन्द्राचार्य सिद्धहेमशब्दानुशासन में 'उत्कृष्टेऽनूपेन' २.३.३९ सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'अनुमल्लवादिनं तार्किकाः' द्वारा मल्लवादी की उत्कृष्टता प्रतिपादित करते हैं । प्रभावकचरित में उल्लिखित गाथा के आधार पर इन्होंने वीर संवत् ८८४ में बौद्धों पर विजय प्राप्त की थी । २१० वीरसंवत् ८८४ के आधार पर मल्लवादी की विजय विक्रम सं० ४१४ एवं ई० सन् ३५७ में स्थापित की जाती है, किन्तु दिङ्नाग मन्तव्यों का खण्डन करने के कारण मल्लवादी का समय दिनाग के पूर्व निर्धारित नहीं किया जा सकता है। मल्लवादी की इस प्रसिद्ध रचना द्वादशारनयचक्र में वार्षगण्य, वसुरात एवं भर्तृहरि का भी खण्डन मिलता है । २११ सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर मल्लवादी की टीका होने का भी हरिभद्र द्वारा उल्लेख है । २१२ अतः मल्लवादी का समय सिद्धसेन एवं दिङ्नाग के समकालीन अथवा कुछ उत्तरवर्ती पांचवीं शती में होना चाहिए। यदि वीर निर्वाण संवत् ५२७ ई० पू० के स्थान पर ४६७ ई० पू० स्वीकार किया जाय तो मल्लवादी का समय ४१७ ई० निर्धारित होता है। मल्लवादी संभव है उसके पश्चात् ५०० ई० तक जीवित रहे हों और उन्होंने तभी दिड्नाग आदि के मन्तव्यों का खण्डन किया हो ।
मल्लवादी की रचनाओं में एकमात्र द्वादशारनयचक्र उपलब्ध है। उसका मूल रूप उस पर सिंहसूरि विरचित न्यायागमानुसारिणी टीका के आधार पर संकलित किया गया है। इस दिशा में विजयलब्धिसूरीश्वर द्वारा १९४८ ई० में प्रयास किया गया था। उनके अनन्तर व्यवस्थित रूप से मुनिजम्बूविजय जी द्वारा प्रयास किया गया है। उनके द्वारा संपादित एवं संकलित द्वादशारनयचक्र के तीनों भाग प्रकाशित हो चुके हैं।
द्वादशारनायचक्र में जैनेतर मन्तव्य जो लोक में प्रचलित थे, उन्हीं को नय मानकर उनका विविधनयों के रूप में संग्रह किया गया है और किस प्रकार जैनदर्शन सर्वनयमय है, यह सिद्ध किया गया है । मिथ्यामतों का समूह होकर भी जैनमत किस प्रकार सम्यक् है और मिथ्यामतों के समूह का २०८. जैनदार्शनिक साहित्य में अनेक "नयचक्र" हैं - श्रीमाइल्लधवल विरचित द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र, देवसेन विरचित नयचक्र आदि, किन्तु द्वादशारनयचक्र इनसे सर्वथा प्राचीन है।
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२०९. द्वादशारनयचक्र (ज.) भाग-१, प्राक्कथन, पृ० १४
२१०. श्री वीरवत्सरादध शताष्टके चतुरशीतिसंयुक्ते ।
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जिग्ये से मल्लवादी बौद्धांस्तद्व्यन्तरांश्चापि ॥ - प्रभावकचरित, ८१, उद्धृत द्वादशारनयचक्र (ज), भाग-१, प्राक्कथन, पृ० १५
२११. द्वादशारनयचक्र, (ज.) भाग-१, प्राक्कथन पृ. १९-२२
२१२. उक्तं च वादिमुख्येन श्रीमल्लवादिना सम्मतौ - अनेकान्तजयपताका, भाग २, पृ० ४७
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