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________________ ४२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा प्रतिपादित करते हैं ।१९९ समन्तभद्र युक्ति एवं तर्क से सर्वज्ञ की सिद्धि करते हैं।२०° प्रमाण एवं प्रमाणाभास की चर्चा करते समय वे ज्ञान को प्रमेय मानने पर उसे प्रमाण ही मानते हैं तथा बाह्यार्थ को प्रमेय मानने पर प्रमाण एवं प्रमाणाभास दोनों की संभावना व्यक्त करते हैं। २०१ समन्तभद्र ने बाह्यार्थ की सत्ता स्वीकार न करने वाले विज्ञानवादियों का खण्डन किया है तथा केवल बाह्यार्थ की सत्ता मानने वाले दार्शनिकों का भी खण्डन किया है। आप्तमीमांसा पर जैनदर्शन के प्रतिष्ठाप्राप्त नैयायिक अकलङ्कने अष्टशती नामक भाष्य लिखा है तथा अकलङ्ककी अष्टशती पर विद्यानन्द ने अष्टसहस्री नामक विस्तृत टीका का निर्माण किया है। इनका परिचय अकलङ्क एवं विद्यानन्द के परिचय के साथ आगे दिया जायेगा। स्वयम्भूस्तोत्र-यह स्तुतिपरक काव्य है जिसमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की गयी है और स्तुति के व्याज से ही अनेकान्तवाद,स्याद्वाद एवं नयवाद को प्रस्तुत किया गया है। समन्तभद्र कहते हैं कि जो सर्वथा असत् है उसका जन्म नहीं होता और जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता । बुझा हुआ दीपक भी अन्धकार रूप पुद्गल पर्याय के रूप में विद्यमान रहता है ।२०२ स्वयम्भूस्तोत्र में समन्तभद्र अनेकान्त का निरूपण करते हुए अनेकान्त को भी अनेकान्तात्मक बतलाते हैं।२०३ वे स्याद्वाद के प्रबल समर्थक हैं तथा स्यात् शब्द से प्रभावित दिखाई देते हैं । उनके अनुसार स्यात् शब्द सर्वथा रूप से कथन करने के नियम का त्यागी एवं यथादृष्ट की अपेक्षा रखने वाला होता है ।२०४ स्याद्वाद प्रत्यक्ष एवं आगमादि प्रमाणों से अविरुद्ध होता है तथा निर्दोष होता है । २०५ समन्तभद्र का प्रसिद्धि प्राप्त प्रमाणलक्षण भी स्वयम्भूस्तोत्र में ही है जिसके अनुसार स्व-पर का प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है ।२०६ मल्लवादी क्षमाश्रमण और द्वादशारनयचक्र (५वीं शती) मल्लवादी क्षमाश्रमण २०७ जैन दर्शन के प्रमुख विचक्षण तार्किक थे। ये अपनी रचना १९९. उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ।-आप्तमीमांसा, १०२ २००. सूक्ष्मान्तरितदूरा: प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थिति: ।-आप्तमीमांसा, ५ २०१. भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणामासनिहवः । बहिः प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तत्रिभं च ते ॥-आप्तमीमांसा,८३ २०२. नैवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ।- स्वयम्भूस्तोत्र, २४ २०३. अनेकान्तोऽप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्त: प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितात्रयात् ||-स्वयम्भूस्तोत्र,१०३ २०४. सर्वथानियमत्यागी, यथादृष्टमपेक्षकः। स्याच्छब्दस्तावके न्याये, नान्येषामात्मविद्विषाम् ।।-स्वयम्भूस्तोत्र, १०२ २०५. अनवद्य: स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधत: ।-स्वयम्भूस्तोत्र, १३८ २०६. स्वपरावभासकं ज्ञानं यथा प्रमाणं मुवि बुद्धिलक्षणम् । स्वयम्भूस्तोत्र, ६३ २०७. एक मल्लवादी ने न्यायबिन्दु पर धमोत्तर टिप्पण लिखे हैं, किन्तु के मल्लवादी द्वादशारनयचक्र के कर्ता क्षमाश्रमण मल्लवादी से भिन्न है।-धोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना,पु०५५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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