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________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा जैनेतर दर्शनों की परीक्षा कर आप्तवचनों को युक्त्यनुकूल सिद्ध करता है एवं उन्हें समीचीन ठहराता है। इसमें स्तुत्यात्मक भावुकता कम एवं तार्किकता अधिक है। समन्तभद्र ने इसमें बौद्धों के क्षणिकवाद, निर्विकल्प प्रत्यक्ष, विज्ञानवाद आदि का खण्डन किया है। चार्वाक, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक आदि के द्वारा मान्य दार्शनिक मन्तव्यों को भी बहुत सरल ढंग से समन्तभद्र ढहा देते हैं। वे यज्ञ में की जाने वाली हिंसा को भी अनुचित ठहराते हैं। सप्तभंगी-स्याद्वाद का निरूपण वे एक ही श्लोक में कर देने में दक्ष हैं ।१९४ समन्तभद्र ने आप्त के अर्थप्ररूपण को प्रत्यक्ष एवं आगम से अविरुद्ध कहकर युक्त्यनुशासित बतलाया है ।१९५ इससे प्रतीत होता है कि समन्तभद्र भी सिद्धसेन की भांति प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम ये तीन ही प्रमाण स्वीकार करते हैं। आप्तमीमांसा-आप्तमीमांसा में दश परिच्छेद एवं ११४ कारिकाएं हैं। नामानुसार इसमें आप्त की मीमांसा की गयी है । आप्त को समन्तभद्र ने निर्दोष बतलाया है तथा उनकी वाणी को युक्तिशास्त्र से अविरुद्ध कहा है ।१९६ समन्तभद्र की सरणि एकान्तवाद की विरोधी है,उन्होंने भाव,अभाव, अद्वैत, द्वैत,नित्य,अनित्य,भेद,अभेद,आदि एकान्तों की समीक्षा करके उनमें नयदृष्टि से पारस्परिक समन्वय स्थापित कर अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित किया है। अनेकान्त का कथन स्याद्वाद द्वारा होता है। समन्तभद्र स्याद्वाद का यह लक्षण निर्धारित करते हैं स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तपङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ।। (आप्तमीमांसा, १०४) अर्थात् सर्वथा एकान्त का त्याग करके कथञ्चित् विधान करना स्याद्वाद है । वह सात भंगों और नयों की अपेक्षा रखता है,तथा हेय और उपादेय के भेद को बतलाता है। ___ समन्तभद्र वस्तु को उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सिद्ध करते हैं । वस्तु प्रतिसमय उत्पन्न होती है,नष्ट होती है एवं फिर भी ध्रुव बनी रहती है । घट को तोड़कर मुकुट बनाने पर घट नष्ट होता है,मुकुट उत्पन्न होता है एवं स्वर्ण बना ही रहता है ।१९७ यद्यपि आप्तमीमांसा न्यायविषयक रचना नहीं है, फिर भी इसमें कुछ अंशों में प्रमाण की चर्चा भी उपलब्ध होती है । प्रमाण का लक्षण देते समन्तभद्र ने तत्त्वज्ञान को प्रमाण कहा है ।१९८ वे केवलज्ञान रूप प्रमाण का फल उपेक्षा बतलाते हैं तथा शेष ज्ञानों या प्रमाणों का फल आदान, हान और उपेक्षा बतलाते हुए समस्त प्रमाणों का फल अज्ञाननाश भी १९४. विधिनिषेधोऽनभिलाप्यता च, विरेकशस्विर्दिश एक एव । यो विकल्पास्तव सप्तधा ऽमी, स्याच्छब्दनेया: सकलेऽर्थभेदे ।।-युक्त्यनुशासन, ४५ १९५. दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।-युक्त्यनुशासन, ४८ १९६. स त्वमेवासि निदोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् ।।- आप्तमीमांसा, ६ १९७. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।। शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ॥-आप्तमीमांसा, ५९ १९८. तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत् सर्वभासनम् ।-आप्तमीमांसा, १०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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