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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
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प्रतिष्ठापक रचनाओं का ही बाहुल्य था, किन्तु ८वीं शती से १२वीं शती के काल में अकलङ्क, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, माणिक्यनन्दी, वादिराज, अभयदेवसूरि , प्रभाचन्द्र , वादिदेवसूरि , हेमचन्द्र आदि ने जैन- न्याय का उन्नयन एवं विशिष्ट प्रतिपादन किया। जैनन्याय के प्रतिपादन की दृष्टि से यह स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। अकलङ्क (७२० से ७८० ई०)
जैनन्याय को बृहद् स्तर पर व्यवस्थित रूप अकलङ्क ने दिया । इसलिए अकलङ्कको जैन न्याय का प्रतिष्ठापक आचार्य कहा जाता है । अकलङ्क की रचनाओं में बौद्ध नैयायिक दिइनाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर गुप्त, कर्णकगोमी तथा मीमांसा दार्शनिक कुमारिलभट्ट का खण्डन किया गया है । अकलङ्क के समय निर्धारण के सम्बन्ध में दो मान्यताएं प्रचलित हैं। श्रीकण्ठ शास्त्री, जुगलकिशोर मुखार, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, आदि कुछ विद्वान् अकलङ्कको सातवीं शताब्दी (६४३ ई.) का सिद्ध करते हैं तो ,के० बी० पाठक, सतीशचन्द्र विद्याभूषण पं० नाथूराम प्रेमी आठवीं शताब्दी का बतलाते हैं। महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य पूर्वप्रचलित मतों पर गहरा विचारकर उन्हें ७२०-७८० ई. के मध्य निर्धारित करते हैं ।२२८ अकलङ्क की कृतियों के आन्तरिक परीक्षण के पश्चात् महेन्द्रकुमार की स्थापना अधिक समीचीन प्रतीत होती है।
अकलङ्क प्रखर तार्किक, वाग्मी एवं प्रतिभासम्पन्न जैन नैयायिक थे। इनको षटतर्ककुशल, वादीभसिंह और वादिसिंह भी कहा गया है ।२२९ भट्ट अकलङ्क ने दो टीका ग्रंथ लिखे हैंतत्वार्थवार्तिक एवं अष्टशती तथा चार न्याय विषयक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की है लघीयस्त्रय (सवृत्ति), न्यायविनिश्चय (सवृत्ति), प्रमाणसङ्ग्रह और सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति) । इनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। तत्त्वार्थवार्तिक-उमास्वाति रचित तत्वार्थसूत्र पर अकलङ्कसे पूर्व पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि टीका लिखी थी। अकलङ्क ने तत्वार्थसूत्र पर वार्तिक की रचना की जिसे तत्वार्थवार्तिक अथवा तत्वार्थराजवार्तिक के नाम से जाना गया । वार्तिक में भट्ट अकलङ्क ने दिइनाग निरूपित प्रमाणलक्षण, प्रत्यक्षलक्षण आदि का निरसन किया है । अकलङ्क ने अपने अन्य ग्रंथों में जहां प्रमाण को कथञ्चित् अनधिगतार्थग्राही प्रतिपादित किया है,वहां उन्होंने तत्त्वार्थवार्तिक में अनधिगतार्थग्राहिता लक्षण को अनुपपन्न बतलाकर अधिगतार्थयाही ज्ञान को भी प्रदीप की भांति प्रकाशक स्वीकार किया है । २३० कल्पनापोढ-प्रत्यक्ष लक्षण, मानस-प्रत्यक्ष, आदि का भी अकलङ्क ने निरसन किया है। यद्यपि तत्वार्थवार्तिक का मुख्य प्रतिपाद्य प्रमाणविद्या नहीं है, तथापि अकलङ्क ने प्रथम अध्याय में न्याय,
२२८. अकलङ्कअन्यत्रय,प्रस्तावना, पृ०१३-३२ २२९. सिद्धिविनिश्चयटीका, प्रस्तावना, पृ०५५ २३०. यथा अन्धकारेऽवस्थितानां घटादीनामत्पत्त्यनन्तरं प्रकाशक : प्रदीप उत्तरकालमपि न तं व्यपदेशं जहाति
तदवस्थानकारणत्वात् , एवं ज्ञानमप्युत्पत्त्यनन्तरं घटादीनामवभासकं भूत्वा प्रमाणत्वमनुभूयोत्तरकालमपि न त व्यपदेशं त्यजति तदर्थत्वात् ।-तत्वार्थवार्तिक,१.१२.१२, पृ०५६
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