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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
सन्निहित है। इस चर्चा का कुछ अंश गौतमीय न्याय से मेल खाता है,कुछ बौद्ध ग्रंथ उपायहृदय से मेल खाता है तो कुछ अंश ऐसा भी है जो नितान्त मौलिक है,यथा स्थानांग सूत्र में प्रत्यक्ष-प्रमाण के दो भेद किये गये हैं- केवल और नोकेवल । १२७ इन्हीं दो भेदों का उत्तरवर्ती जैनन्याय के साहित्य में सकल एवं विकल प्रत्यक्ष के रूप में कथन हुआ है ।१३८ अनुयोगद्वार सूत्र में इन्द्रियज्ञान को भी प्रत्यक्ष प्रतिपादित करते हुए प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये हैं- इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । १३९
जैन दार्शनिक जिनभद्र एवं अकलङ्क ने संभव है प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक भेद प्रतिपादित करने की प्रेरणा यहां से ही पायी हो । दलसुख मालवणिया का कथन है कि सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक भेद अकलङ्ककी नयी देन नहीं है ,क्योंकि इसका मूल नन्दीसूत्र एवं उनके जिनभद्रगणि कृत स्पष्टीकरण में विद्यमान है ।१४०
न्याय एवं सांख्य दर्शन की भांति अनुयोगद्वारसूत्र में अनुमान के तीन भेद प्रतिपादित हैं- (१) पूर्ववत् (२) शेषवत् एवं (३) दृष्टसाधर्म्यवत् ।१४१ कार्य,कारण, गुण, अवयव एवं आश्रय से होने के कारण शेषवत् अनुमान पांच प्रकार का कहा गया है।४२ दृष्टसाधर्म्यवत् के भी दो भेद किये गये हैं - सामान्य दृष्ट और विशेष दृष्ट । इनमें सामान्य दृष्ट का उपमान एवं विशेषदृष्ट का प्रत्यभिज्ञान से साम्य दिखाई देता है । एकत्र अनुयोगद्वार सूत्र में ही काल की दृष्टि से अनुमान के तीन भेद किये गये हैं- अतीत कालग्रहण,प्रत्युत्पन्न कालग्रहण और अनागत कालग्रहण ।१४३ ___ अनुमान के अवयवों के सन्दर्भ में मूल आगमों में कोई चर्चा नहीं है, किन्तु भद्रबाहु रचित दशवकालिक नियुक्ति में उसके दो, तीन, पांच एवं दश अवयवों का प्रतिपादन हुआ है।१४४ दो अवयवों में प्रतिज्ञा एवं उदाहरण; तीन में प्रतिज्ञा,हेतु एवं उदाहरण तथा पांच अवयवों में प्रतिज्ञा,हेतु, दृष्टान्त, उपसंहार और निगमन का अन्तर्भाव किया गया है । दश अवयवों का प्रयोग दो प्रकार से किया गया है- प्रथम प्रकार में प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाविशुद्धि, हेतु, हेतुविशुद्धि, दृष्टान्त, दृष्टान्तविशुद्धि, उपसंहार,उपसंहारविशुद्धि,निगमन एवं निगमनविशुद्धि की गणना की गयी है तथा द्वितीय प्रकार में प्रतिज्ञा,प्रतिज्ञा-विभक्ति,हेतु,हेतुविभक्ति,विपक्ष,प्रतिषेध,दृष्टान्त,आशंका,तत्प्रतिषेध और निगमन
१३७. स्थानांग सूत्र, सुत्तागमे, पृ० १८७ १३८. तद् विकलं सकलं च ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, २.१९ १३९. से किं तं पच्चक्खे ? दुविहे पण्णते तं बहा-इन्दियपच्चक्खे, णोइंदियपच्चक्खे ।-अनुयोगद्वारसूत्र,
जीवगुणप्रमाणद्वार, १४०. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० १३५ १४१.(१) से किं तं अणुमाणे ? से तिविहे पण्णते तं जहा-पुत्ववं, सेसवं, दिट्ठसाहम्मवं ।-अनुयोगद्वार सूत्र, अनुमान
प्रमाणद्वार। (२) न्याय एवं सांख्य दर्शन में दृष्टसाधर्म्यवत् के स्थान पर सामान्यतोदृष्ट शब्द का प्रयोग हुआ है। १४२. से किं तं सेसवं? सेसवं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा-कज्जेणं, कारणेणं, गुणेणं, अवयवेणं, आसएणं- अनुयोगद्वारसूत्र,
अनुमानप्रमाणद्वार। १४३. अनुयोगद्वारसूत्र, अनुमानप्रमाणद्वार । १४४. द्रष्टव्य, दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा, ४९-५०, गाथा, ९२ से १३७
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