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________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा ३३ का प्रतिपादन है। ___ औपम्य-प्रमाण के अनुयोगद्वारसूत्र में साधोपनीत एवं वैधोपनीत के रूप में दो भेद किये गये हैं।१४५ साधोपनीत तीन प्रकार का निरूपित किया गया है-किञ्चित् साधोपनीत, प्रायः साधोपनीत,एवं सर्वसाधोपनीत । इसी प्रकार वैधयोपनीत के भी तीन प्रकार मिलते हैं-किञ्चित् वैधयोंपनीत,प्रायो वैधोपनीत एवं सर्ववैधोपनीत । इनके प्रत्येक के उदाहरण भी दिये गये हैं। आगम-प्रमाण के लौकिक एवं लोकोत्तर नाम से दो भेद किये गये हैं।१४६ इनमें महाभारत, रामायण वेद आदि तथा बहत्तर कलाशास्त्र लौकिक आगम माने गये हैं, जो जैनदार्शनिकों की उदार एवं अनेकान्तदृष्टि तथा समन्वय की भावना का उत्कृष्ट परिचायक है । लोकोत्तर आगम में सर्वज्ञ,सर्वदर्शी प्रणीत आचाराङ्ग सूत्रकृताङ्ग आदि जैन शास्त्रों को सम्मिलित किया गया है । अनुयोगद्वार सूत्र में ही आगम के तीन अन्य भेद भी प्रतिपादित हैं-आत्मागम,अनन्तरागम और परम्परागम।१४७ तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित अर्थरूप आगम उनके स्वयं के लिए आत्मागम, गणधरों के लिए अनन्तरागम एवं गणधरशिष्यों के लिए परम्परा से प्राप्त होने के कारण परम्परागम माने गये हैं। इस प्रकार विभिन्न आगमों में प्रमाण से सम्बन्धित सामग्री प्राप्त होती है.जो निश्चित रूप से जैन प्रमाण-शास्त्रों के निर्माण में उपयोगी सिद्ध हुई है। नियुक्तियों एवं भाष्यों का भी इस दृष्टि से योगदान है । इसमें कोई संदेह नहीं कि बौद्ध त्रिपिटकों की अपेक्षा जैनागम प्रमाणमीमांसा की दृष्टि से समृद्ध हैं। उपायहदय आदि बौद्ध ग्रंथों में प्रतिपादित वादविद्या विषयक वर्णन जैनागमों में अपेक्षाकृत कम उपलब्ध होता है। दलसुखभाई मालवणिया ने आगमयुग का जैनदर्शन पुस्तक में वादविद्या का विस्तृत वर्णन दिया है जो तत्र द्रष्टव्य है। अनेकान्तसाहित्य युगीन प्रमाणमीमांसा (द्वितीय शती से सातवीं शती) ईसवीय चौथी शती से सातवीं शती का काल जैनदर्शन में अनेकान्त एवं स्याद्वाद के स्थापन का काल था। इस काल में लगभग प्रत्येक जैन दार्शनिक अनेकान्तवाद की स्थापना के लिए प्रयत्नशील था। सिद्धसेन एवं समन्तभद्र का इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । अनेकान्त दृष्टि का आलम्बन लेकर इन दार्शनिकों ने जैनेतर दार्शनिकों के मन्तव्यों का खण्डन किया है तथा अनेकान्त के उपदेष्टा महावीर का स्तुति गान किया है । अनेकान्त के स्थापन का कार्य हरिभद्रसूरि (७००-७७० ई०)ने भी अनेकान्तजयपताका का निर्माण करके किया,तथापि हमारी दृष्टि इस समय प्रमाण शास्त्रीय रचनाओं की ओर विशेष केन्द्रित है। इसलिए उमास्वाति (द्वितीय तृतीय शती) के तत्वार्थसूत्र से ही हम अध्ययन प्रारम्भ करेंगे तथा सिद्धसेन के न्यायावतार एवं समन्तभद्र की आप्तमीमांसा पर अपनी दृष्टि केन्द्रित करेंगे। इस युग में कुन्दकुन्द के समयसार , नियमसार आदि ग्रंथों तथा मल्लवादी १४५. अनुयोगदारसूत्र, औपम्य प्रमाणद्वार । १४६. अनुयोगद्वार सूत्र, आगम प्रमाणद्वार । १४७. अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते तं जहा–अत्तागमे अनन्तरागमे परंपरागमे य ।-अनुयोगद्वार सूत्र, आगमप्रमाणद्वार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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