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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
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आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान) श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान का भेदोपभेदों के साथ विस्तृत निरूपण है । १२९ ज्ञान का यही वर्णन जैनदर्शन की प्रमाण-मीमांसा का आधार बना
आगम-साहित्य में न्यायदर्शन सम्मत प्रमाण का विवरण भी मिलता है। अनुयोगद्वारसूत्र , स्थानाइसूत्र एवं भगवतीसूत्र इसके निदर्शन हैं ।अनुयोगद्वार एवं भगवतीसूत्र में प्रमाण के चार प्रकार प्रतिपादित हैं- (१) प्रत्यक्ष (२) अनुमान (३) औपम्य एवं (४) आगम । १३° स्थानाङ्गसूत्र में इन्हीं चार प्रमाणों को ‘हेतु' शब्द से कहा गया है। १३१ इस सूत्र में एक अन्य स्थान पर प्रमाण का व्यवसाय' शब्द से भी उल्लेख हुआ है और उसके तीन भेद बताए गए हैं (१) प्रत्यक्ष (२) प्रात्ययिक एवं (३) अनुगामी १३२ । पं० दलसुख मालवणिया के अनुसार यही तीन व्यवसाय सिद्धसेन के न्यायावतार एवं हरिभद्र के अनेकान्तजयपताका ग्रंथों में प्रत्यक्ष,अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों के रूप में निरूपित हुए हैं ।१३३
स्थानांगसूत्र एवं नन्दीसूत्र में ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो भेदों का कथन हुआ है ।१३४ उमास्वाति, सिद्धसेन आदि दार्शनिकों ने जैनन्याय में इन्हीं भेदों को प्रमाण-भेदों के रूप में प्रतिष्ठित किया है ।
अनुयोगद्वारसूत्र एवं स्थानांगसूत्र में प्रमाण शब्द का मापन' अर्थ में भी प्रयोग हुआ है,तथा उसके चार भेद किये गये हैं- द्रव्य-प्रमाण, क्षेत्र-प्रमाण, कालप्रमाण एवं भाव-प्रमाण ।१३५ अनुयोगद्वारसूत्र में भाव-प्रमाण के तीन भेद किये गये हैं - गुण,नय और संख्या । गुणों में जीव के तीन गुण निरूपित हैं । ज्ञान,दर्शन और चारित्र । ज्ञानगुण रूप भाव-प्रमाण के पुनः चार भेद किये गये हैं,जो न्यायशास्त्र के ही चार प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम। १३६
आगमों में प्रमाणमीमांसा के उल्लेख की दृष्टि से अनुयोगद्वार सूत्र एवं स्थानांग सूत्र को पर्याप्त महत्त्व दिया जा सकता है,क्योंकि इनमें प्रत्यक्ष,अनुमान,औपम्य एवं आगम प्रमाणों की विस्तृत चर्चा १२९. द्रष्टव्य, नन्दीसूत्र १-४३, भगवती सूत्र, ८.२.३१७, षट्खण्डागम धवलापुस्तक १३, पृ० २०९-२५३, राजप्रश्नीय,
६०, स्थानांग ५.३, सुत्तागमे, १०२६८ १३०. गोयमा से किं तं पमाणं ? पमाणे चउबिहे पण्णते, तंबहा पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे । जहा अणुओगद्दारे
तहा णेयव्वं पमाणं. ।-भगवती सूत्र ५.३.१९२, अनुयोगद्वार सूत्र, जीवगुण प्रमाणवर्णनद्वार । १३१. अहवा हेऊ चउबिहे पण्णत्ते तं जहा-पच्चरखे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे ।-स्थानांग सूत्र , ४३०, सुत्तागमे, पृ०
२४७ १३२. तिविहे ववसाए पण्णत्ते तं जहा-पच्चक्खे, पच्चतिते, आणुगामिए ।-स्थानांग सूत्र, २४५, सुत्तागमे, पृ० २१५ १३३. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० १३८-१३९ १३४.(१) दुविहे नाणे पण्णत्ते, पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव ।-स्थानांगसूत्र १०३, सुत्तागमे, पृ० १८७
(२) तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा पच्चक्खं च परोक्खं च ।-नन्दीसूत्र, २ १३५. चउबिहे पमाणे पण्णते, तं जहा दव्वप्पमाणे, खेत्तप्पमाणे, कालप्पमाणे, भावप्पमाणे ।- स्थानांग सूत्र, ३२१, सुत्तागमे,
पृ. २२६, अनुयोगद्वारसूत्र, प्रमाणद्वार । १३६. से किं णाणं गुणप्पमाणे? चउब्धिहे पण्णते तं जहा पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे ।- अनुयोगद्वारसूत्र,
जीवगुणप्रमाणद्वार।
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