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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा पार्श्वनाथ से लेकर विक्रमीय पंचम-षष्ठ शताब्दी तक रखते हैं। द्वितीय युग को दो शताब्दियों विक्रमीय छठी- सातवीं शताब्दी में तथा तृतीय युग को विक्रमीय आठवीं शती से लेकर अठारहवीं शती तक रखते हैं । मुनिनथमल (सम्प्रति आचार्य महाप्रज्ञ) ने सम्पूर्ण जैन -न्याय को तीन भागों में विभक्त किया है, यथा-१. आगम युग का जैन न्याय २. दर्शनयुग का जैन न्याय एवं ३. प्रमाणव्यवस्था युग का जैन न्याय ।१२७ यह माना जाता है कि जो कार्य बौद्धदर्शन में दिङ्नाग ने किया वही कार्य जैन दर्शन में अकलङ्क ने किया । अकलङ्क के ग्रंथों में ही हम जैन प्रमाणमीमांसा के विकसित स्वरूप के दर्शन कर पाते हैं। अकलङ्क से पूर्व सिद्धसेन के न्यायावतार को जैन प्रमाणमीमांसा का प्रमुख ग्रंथ कहा जा सकता है, किन्तु उसमें परोक्ष प्रमाण के स्मृति,प्रत्यभिज्ञान आदि भेदों का निरूपण न होने तथा ऐसे ही अन्य कारणों से उसे जैन प्रमाणमीमांसा की सम्पूर्ण विकसित कृति नहीं कहा जा सकता। समन्तभद्र , मल्लवादी, पात्रकेसरी, सुमति आदि जो अन्य जैन दार्शनिक हुए हैं उनकी रचनाएं या तो उपलब्ध नहीं हैं या उपलब्ध हैं तो उनमें प्रमाणव्यवस्था का निरूपण पूर्णरूपेण नहीं हुआ है, अतः अकलङ्क को ही हम जैनदर्शन की प्रमाणमीमांसा का आधार बनाकर नवीन विभाजन करते हैं १. प्राग् अकलङ्क प्रमाणमीमांसा २. अकलङ्क एवं तदुत्तरवर्ती प्रमाणमीमांसा। प्राग् अकलङ्क प्रमाणमीमांसा को भी दो उपविभागों में रखा जा सकता है १. आगमवर्ती तथा २. अनेकान्तसाहित्य युगीन (ईसा की प्रथम शती से छठी शती तक) अकलङ्क एवं तदुत्तरवर्ती जैन प्रमाणशास्त्रीय रचनाओं को भी दो उपविभागों में रखा जा सकता है-१. आठवीं शती से बारहवीं शती एवं २. नव्य न्याययुग इन समस्त भागोपविभागों में यद्यपि अकलङ्क एवं तदुत्तरवर्ती प्रमाणशास्त्रीय ग्रंथों में आठवीं से बारहवीं शती के ग्रंथों का विशेष महत्त्व है,तथापि सम्पूर्ण जैनन्याय का संक्षिप्त परिचय अभीष्ट होने से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। आगमवर्ती प्रमाणमीमांसा बौद्ध त्रिपिटकों की अपेक्षा प्रमाणमीमांसीय दृष्टि से जैन आगम समृद्ध हैं । अनुयोगद्वार सूत्र में प्रमाण एवं नय का विस्तृत विवेचन है । जैन दर्शन में सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा गया है ।१२८ इस अर्थ में यदि आगम-साहित्य का अनुशीलन किया जाय तो नन्दीसूत्र ज्ञानमीमांसा से ही ओत प्रोत है। भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र), षट्खण्डागम , राजप्रश्नीय, स्थानांग आदि आगमों में भी १२७. जैनन्याय का विकास, पृ०७-८ १२८. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं, प्रमाणत्वान्यथानुपपत्ते: ।--प्रमाणपरीक्षा, पृ० १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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