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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
अन्य बौद्धाचार्य एवं उनकी कृतियां
दुर्वेकमिश्र के अतिरिक्त ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध में ज्ञानश्री मित्र एवं उनके शिष्य रत्नकीर्ति ने भी बौद्ध दर्शन का सम्यक निरूपण किया है। ज्ञानश्रीमित्र ने बौद्धदर्शन की तत्त्वमीमांसीय एवं प्रमाणमीमांसीय समस्याओं पर बारह निबन्धों की रचना की, जिनमें क्षणभङ्गाध्याय, व्याप्तिचर्चा, अनुपलब्धिरहस्यम्,अपोहप्रकरणम्,कार्यकारणभावसिद्धिः, अद्वैतबिन्दुप्रकरणम ,एवं साकारसिद्धिशास्त्रम् को प्रमुख कहा जा सकता है । इन निबन्धों का प्रकाशन- ज्ञानश्रीमित्र निबन्धावली में प्रो० अनन्तलाल ठाकुर के संपादकत्व में सन् १९५९ ई. में काशी प्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट , पटना से हुआ है। ज्ञानश्रीमित्र की शैली सरस एवं बोधगम्य है। उनके क्षणभङ्गाध्याय एवं अपोहप्रकरण से जैनदार्शनिक वादिदेवसूरि ने कुछ श्लोकों को पूर्वपक्ष के रूप में उद्धृत किया है। ज्ञानश्रीमित्र ने अपनी रचनाओं में वाचस्पतिमिश्र, त्रिलोचन, भासर्वज्ञ एवं शंकर के मतों का खण्डन किया है । उनके शिष्य रत्मकीर्ति की भी क्षणभंगसिद्धि एवं अपोहसिद्धि नामक रचनाएं दार्शनिक जगत् में आदृत हुई हैं जिनका प्रकाशन बिब्लियोथिका इण्डिका सीरीज से प्रकाशित सिक्स बुद्धिस्ट न्याय ट्रेक्टस में हुआ है । इसका संपादन महामहोपाध्याय हरप्रसादशास्त्री द्वारा किया गया तथा प्रथम प्रकाशन १९१० ई. में कलकत्ता से हुआ ।
दसवीं ग्यारहवीं शती में रचित मोक्षाकरगुप्त की तर्कभाषा भी बौद्धन्याय में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । मोक्षाकरगुप्त ने इसमें धर्मकीर्ति की न्यायबिन्दु का अनुसरण करते हुए प्रत्यक्ष,स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान नामक तीन परिच्छेद लिखे हैं जो संक्षेप में सम्पूर्ण बौद्ध न्याय को प्रस्तुत करते हैं। इसका प्रकाशन गायकवाड़ सीरिज से १९४२ ई. में एम्बार कृष्णमाचार्य की संस्कृत टीका के साथ हुआ है। ___ इस प्रकार चौथी पांचवी शती से लेकर ग्यारहवीं शती तक भारत में बौद्धन्याय के अनेक ग्रंथों की रचना हुई और ये सभी ग्रंथ यथाकाल जैन दार्शनिकों द्वारा अधीत रहे हैं।
जैन-परम्परा जैन दर्शन में प्रमाण-मीमांसा का व्यवस्थापन सही अर्थों में बौद्धों के पश्चात् आठवीं सदी में जैन दार्शनिक भट्ट अकलङ्क ने किया,किन्तु व्यापक फलक पर किए गए अध्ययन से ज्ञात होता है कि जैनदर्शन में प्रमाणमीमांसीय चर्चा के बीज आगमों में भी उपलब्ध हैं । पं० दलसुख मालवणिया ने सम्पूर्ण जैन दर्शन को साहित्यिक विकास की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया है- १. आगम युग २.अनेकान्त व्यवस्थायुग ३.प्रमाणव्यवस्था युग एवं ४.नवीन न्याययुग । पं० सुखलाल संघवी इन्हें तीन विभागों में रखते है- १. आगमयुग २. संस्कृतप्रवेश या अनेकान्तस्थापन युग और ३. न्याय-प्रमाण स्थापनयुग। १२६ वे आगमयुग को भगवान महावीर अथवा उनके पूर्ववर्ती भगवान् १२५. आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० २८१ १२६. दर्शन और चिन्तन, द्वितीय खण्ड, पृ०३६२
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