________________
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
सुखलाल संघवी एवं मुनिजिनविजय के सम्पादन में हुआ । स्वयूथ्यविचार, विशेषाख्यान, क्षणभङ्गसिद्धि एवं चतुःशती ग्रंथों का धर्मोत्तरप्रदीप या हेतुबिन्दुटीकालोक में उल्लेख मिलता है १२० किन्तु वे अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं। धर्मोत्तरप्रदीप एवं हेतुबिन्दुटीकालोक का संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है ।
२८
धर्मोत्तरप्रदीप- न्यायबिन्दुटीका पर उपलब्ध अन्य सब टिप्पणों से धर्मोत्तरप्रदीप अधिक विस्तृत है । यह वस्तुतः धर्मोत्तर टीका के लिए प्रदीप है । इसकी मुख्य विशेषता है कि इसमें पूर्वपक्ष उपस्थापित करके धर्मोत्तर के मन्तव्य की व्याख्या की गयी है। धर्मोत्तरप्रदीप की भाषा प्रौढ, सुश्लिष्ट एवं मुहावरों से युक्त है। दुर्वेक व्यर्थ की चर्चा करना एवं खींचखांच कर अर्थ निकालना पसन्द नहीं करते । टीका में अनेक स्थानों पर वे पूर्वटीकाकारों के मन्तव्यों का भी उल्लेख करते हैं । दुर्वेकमिश्र के अनुसार न्यायबिन्दु सौत्रान्तिक मत की दृष्टि से लिखा गया ग्रंथ है, योगाचार मत के साथ इसकी कुत्रचित् संगति बैठ जाना आनुषंगिक है, मुख्य नहीं,१ २१ दुर्वेकमिश्र ने धर्मोत्तर के अभिप्राय को कुशलता से स्पष्ट किया है तथा कुत्रचित् विचार भेद भी प्रकट किया है । उनका यह प्रदीप बौद्धन्याय के अध्ययनार्थ महत्त्वपूर्ण है।
हेतुबिन्दुटीकालोक - धर्मकीर्ति रचित हेतुबिन्दु पर अर्चट ने टीका की थी । अर्चट की टीका पर दुर्वेक मिश्र ने आलोक की रचना की है, जिसे हेतुबिन्दुटीका या अर्चटालोक के नाम से जाना जाता है । इसमें दुर्वेकमिश्र ने अर्चट की टीका पर विशद व्याख्या की है एवं यथावसर बौद्धेतर मंतव्यों का उपस्थापन कर उनका निरसन किया है। अर्चट का अनुकरण करते हुए भी दुर्वेक ने कहीं कहीं उनसे असहमति प्रकट की है । स्वभाव, कार्य एवं अनुपलब्धि इन तीनों हेतुओं की दुर्वेक ने विशद व्याख्या की है। इसका भी प्रकाशन पं. सुखलाल संघवी द्वारा संपादित हेतुबिन्दुटीका के साथ हुआ है।
हेतुबिन्दुटीकालोक में दुर्वेक मिश्र ने जैनों द्वारा मान्य उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत् का खण्डन किया है । उन्होने समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की कारिकाओं को भी इस सन्दर्भ में उद्धृत किया है १२२ जैन ग्रन्थ वादन्याय के रचयिता (संभवतः कुमारनन्दी) को स्याद्वादकेशरी की उपमा देते हुए उनके मत को उद्धृत कर १२३ टीकाकार कुलभूषण की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है तथा फिर उसका खण्डन किया है । १२४
१२०. धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ६०
१२१. धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृ० ५८ १२२. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ॥
पयोवतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रतः ।
अगोरसवतो नोभे तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् ॥ - आप्तमीमांसा, ५९-६० एवं हेतुबिन्दुटीकालोक, पृ. ३६९ १२३. तथा चावादीद् वादन्याये स्याद्वादकेशरी - अखिलस्य वस्तुनोऽनेकान्तिकत्वं सत्त्वात् । अन्यथार्थक्रिया कुत: '
इति ॥ - हेतुबिन्दुटीकालोक, पृ. ३७३
१२४. द्रष्टव्य हेतुबिन्दुटीकालोक, पृ. ३७३-३७४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org