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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
शान्तरक्षित की प्रमुख रचना है- तत्त्वसङ्ग्रह । उनकी दो अन्य रचनाओं का भी उल्लेख मिलता है- १. धर्मकीर्ति के वादन्याय पर विपञ्चितार्थटीका एवं २. मध्यमकालङ्कारग्रन्थ । कमलशील ने तत्वसङ्ग्रह की व्याख्या में तत्वसङ्ग्रहपञ्जिका नामक टीका की रचना की है। उनके एक अन्य ग्रंथ न्यायबिन्दुपूर्वपक्षसंक्षेप का भी उल्लेख मिलता है। तत्वसङ्ग्रह एवं तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका-आठवीं शताब्दी में रचित बौद्ध-न्याय की महत्त्वपूर्ण कृति तत्त्वसङ्ग्रह आचार्य शान्तरक्षित की अनुपम रचना है । यह ३६४५ कारिकाओं में निबद्ध है । इस पर आचार्य नागार्जुन की माध्यमिक कारिका एवं धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक का प्रभाव लक्षित होता है। तत्वसङ्ग्रह में प्रमेयों की परीक्षा प्रमाण-परीक्षा की अपेक्षा अधिक हुई है । जिनमें प्रकृति,ईश्वर,पुरुष, शब्द-ब्रह्म, आत्मा, स्थिरभाव, कर्मफलसम्बन्ध, द्रव्य, गुण, कर्म,सामान्य, विशेष, समवाय, शब्दार्थ, स्याद्वाद,श्रुति आदि की परीक्षा मुख्य है । प्रमाणों में प्रत्यक्षलक्षण, अनुमान,शब्द,उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव, ऐतिह्य आदि की परीक्षा करने के साथ प्रामाण्यवाद की भी परीक्षा की गयी है। शान्तरक्षित ने अविद्धकर्ण, शङ्करस्वामी, भाविविक्त, योगसेन, लक्षणकार, सुमति, पात्रस्वामी, पुरन्दर आदि उन विभिन्न विद्वानों के भी मन्तव्यों का उपस्थापन एवं खण्डन किया है जिनका आज कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है । शान्तरक्षित का तत्त्वसंग्रह धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक की अपेक्षा सुगम है ।
तत्वसङ्ग्रह पर कमलशील की पञ्जिका गद्य में निबद्ध है । यह शब्दानुलक्षी व्याख्या होकर भी ग्रंथ के हार्द को कुशलता के साथ स्पष्ट करती है । शान्तरक्षित जिन विपक्षी आचार्यों के मत का बिना नाम लिए पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापन करते हैं,कमलशील अपनी पञ्जिका में उनका नामोल्लेख भी करते हैं। जैनदार्शनिक सुमति एवं पात्रस्वामी के मतों का उपस्थापन एवं खण्डन इसका निदर्शन है। तत्वसङ्ग्रहपञ्जिका में दिइनाग मन्तव्यों को भी स्पष्ट किया गया है ।११८ दुर्वेक मिश्र (१० वीं-११ वीं शती)
दुर्वेकमिश्र का समय सतीशचन्द्र विद्याभूषण, सुखलाल संघवी आदि ने दसवीं शताब्दी का अंतिमपाद एवं ग्यारहवीं शती का पूर्वार्द्ध स्वीकार किया है ।११९ दुर्वेकमिश्र जितारि के शिष्य थे। दुर्वेकमिश्र के चार ग्रंथों का उल्लेख मिलता है- १. धर्मोत्तरप्रदीप २. अर्चटालोक (हेतुबिन्दुटीका लोक)३.स्वयूथ्यविचार एवं ४.विशेषाख्यान | इनके अतिरिक्त क्षणभंगसिद्धि एवं चतुःशती नामक, रचनाओं का भी दुकमिश्र ने स्वयं उल्लेख किया है। इनमें से प्रथम दो ग्रंथों को राहुलसांकृत्यायन तिब्बत से लाए थे। उनका संस्कृत में प्रकाशन भी हो गया है । धर्मोत्तरप्रदीप का प्रकाशन भोटदेशीय संस्कृत ग्रंथमाला के अन्तर्गत द्वितीय पुष्प के रूप में काशीप्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट,पटना से सन् १९५५ ई० में पं० दलसुखभाई मालवणिया के संपादन में हुआ। हेतुबिन्दुटीकालोक का प्रकाशन हेतुबिन्दु एवं उसकी टीका के साथ गायकवाड ओरियण्टल सीरीज में १९४९ ई. में पं० ११८. द्रष्टव्य, प्रमाणसमुच्चय (रंगास्वामी अयंगर संपादित) एवं तत्त्वसंग्रहपञ्जिका। ११९. A History of Indian Logic, p. 337, हेतुबिन्दुटीका, प्रस्तावना, पृ० १२, धर्मोत्तरप्रदीप,प्रस्तावना, पृ०६०
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