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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
न्यायबिन्दु पर अनेक टीकाएं लिखी गयी हैं,उनमें प्रमुख हैं-विनीतदेव की टीका,शान्तभद्र की टीका, धर्मोत्तरकृतटीका आदि । विनीतदेव की टीका तिब्बती अनुवाद में उपलब्ध है तथा इसका बिब्लिओथिका इण्डिका में कलकत्ता से सन् १९१३ में प्रकाशन भी हुआ है । शान्तभद्र की टीका तिब्बती एवं संस्कृत दोनों में अनुपलब्ध है ,किन्तु शान्तभद्र के मतों का खण्डन धर्मोत्तर, अकलङ्क
आदि आचार्यों के ग्रंथों में मिलता है । दुर्वेक मिश्र ने भी शान्तभद्र का उल्लेख किया है । धर्मोत्तरकृत टीका सर्वाधिक प्रसिद्ध हुई है । इसे हीन्यायबिन्दुटीका के नाम से जाना जाता है तथा यह अभी संस्कृत में उपलब्ध है । इस पर विशेष विचार आगे धर्मोत्तर के प्रसंग में किया जायेगा। इन तीन टीकाओं के अतिरिक्त कमलशील द्वारा न्यायबिन्दु-पूर्वपक्ष-संक्षेप एवं जिनमित्र द्वारा न्यायबिन्दपिण्डार्थ की भी रचना की गयी है,किन्तु इनके तिब्बती अनुवाद मिलते हैं,संस्कृत मूल एवं अनुवाद उपलब्ध नहीं है। ३. प्रमाणविनिश्चय-धर्मकीर्ति की यह कृति मध्यमबुद्धि जिज्ञासुओं के लिए बनी है । इसमें प्रमाणवार्तिक में प्रतिपादित विषयों को ही संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है । इसके आधे से अधिक श्लोक प्रमाणवार्तिक से ही गृहीत हैं। यह मूल संस्कृत में अनुपलब्ध है, इसका तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है । इसके तीन परिच्छेद हैं--प्रत्यक्ष,स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । इसकी धर्मोत्तररचित टीका तथा ज्ञानश्रीभद्र कृत टीका भी तिब्बती भाषा में उपलब्ध है । ध्वन्यालोक के कर्ता आनन्दवर्धन की भी इस पर धर्मोत्तमा टीका होने का उल्लेख मिलता है।९९ ४. हेतबिन्द-यह हेतु के लक्षण,स्वरूप एवं उसके प्रकारों से सम्बद्ध है । न्यायबिन्द के समान यह भी सूत्रों में निबद्ध है । स्वभाव,कार्य एवं अनुपलब्धि हेतुओं का इसमें विशद निरूपण है । हेतुबिन्दु पर अर्चट की टीका है तथा उस पर दर्वेकमिश्र का आलोक है, जिन्हें क्रमशः हेतुबिन्दुटीका एवं हेतुबिन्दुटीकालोक (अर्चटालोक) कहा जाता है । हेतुबिन्दुटीका का दुर्वेकमिश्र के आलोक के साथ
ओरियण्टल इंस्टीट्यूट बड़ौदा से १९४९ ई० में पं० सुखलालसंघवी तथा मुनि श्री जिनविजय के संयुक्त संपादन में प्रकाशन हुआ है। ५. सम्बन्धपरीक्षा-धर्मकीर्ति की यह कृति मूलरूप में अनुपलब्ध है ,किन्तु जैनाचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा वादिदेवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर में इसकी कारिकाएँ उद्धृत की हैं। १०० प्रमेयकमलमार्तण्ड में २२ कारिकाएँ उद्धृत हैं , जिन पर स्वयं प्रभाचन्द्र ने व्याख्या लिखी है। इनका पृथक् प्रकाशन बौद्धभारती,वाराणसी से प्रभाचन्द्र की व्याख्या सहित १९७२ ई. में हुआ है। इससे पूर्व श्री राहुल सांकृत्यायन ने १९५३ ई. में.प्रमाणवार्तिकभाष्य की प्रस्तावना में २२ कारिकाओं को उद्धृत किया है । सम्बन्धपरीक्षा में संयोग, समवाय आदि सम्बन्धों की परीक्षा की गई है। ६. वादन्याय- यह पूर्णतः वाद-विद्या से सम्बन्धित रचना है । इसमें धर्मकीर्ति ने निग्रहस्थान का लक्षण किया है तथा न्यायदर्शन सम्मत समस्त निग्रहस्थानों का खण्डन किया है। असाधनांग वचन ९९. Buddhist Logic, Vol. 2, p. 41. १००, द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ५०३-५११एवं स्याद्वादरत्नाकर, पृ० ८१२ ।
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